kuchh aur gulab
बस कि मेहमान सुबह-शाम के हैं
हम मुसाफिर सराय-आम के हैं
काम अपना है उनको पहुँचाना
ख़त सभी दूसरों के नाम के हैं
है ये किस शोख़ की गली, यारो !
लोग चलते कलेजा थामके हैं
जब हमें लौटना नहीं है यहाँ
फिर ये वादे तेरे, किस काम के हैं !
उनके आने से आ गयी है बहार
वर्ना हम तो गुलाब नाम के हैं