mere bharat mere swadesh

जागो भारतवासी!

तुम्हें पुकार रहा हिमगिरि से, मैं जय का विश्वासी
जागो हे युग – युग के सोये, खोये, भारतवासी !

जागो हे चुपचाप चिता पर, मरने के अभ्यासी
जागो हे जागरण – विभा से, डरने के अभ्यासी
जागो हे सिर झुका याचना करने के अभ्यासी
जागो हे सब कुछ सह, चुप्पी धरने के अभ्यासी

जागो हे, छाई है जिनके मुख पर पीत उदासी
जागो हे जीवन – सुख वंचित, वीतराग सन्यासी !

तुम्हें जगाने को मैं अपनी छोड़ अमर छवि आया
अग्नि-किरीट पहन सुमनों की नगरी से रवि आया
यौवन का सन्देश लिए सुन्दरता का कवि आया
उद्धत शिखरों पर ज्यों नभ से टूट प्रबल पवि आया

जनता के जीवन में आया मैं मधु – स्वप्न – विलासी
सिसक रही सुकुमार कल्पना, वह चरणों की दासी

मेरे गीतों में नूतन युग पाँखें खोल रहा है
मेरी वाणी में जनता का जीवन बोल रहा है
मेरे नयनों में भविष्य का मानव डोल रहा है
मेरे कर पर विश्व विहग-सा कर कल्लोल रहा है

मेरी कविता में हँसती है, नूतन ज्योति उषा – सी
अँगड़ाई ले जाग रही धरणी नव परिणीता – सी

अरुण कली सा मुख, नत ग्रीवा, श्याम अलक भुज गोरे
बंधन आज नहीं कज्जल नयनों में अरुणिम डोरे
आज हृदय में नव जीवन – सागर ले रहा हिलोरें
नारी सहधर्मिणी आज फिर कौन किसे झकझोरे

वह न पराजय कभी मिली जो तुम्हें विजयप्रतिमा-सी
प्रेम सहज अधिकार तुम्हारा, ओ जीवनाभिलाषी !

मानवता चल रही सम्मिलित आज बढ़ा पग अपने
आज सत्य होते जाते हैं, कल के कोरे सपने
झुकता लो आकाश तुम्हारे पद – चिह्नों से नपने
आज नहीं दूँगा मैं तुमको रोने और कलपने

मेरी बाँहें आज रहीं नव संसृति को अकुला – सी
उठो अमृत – संतान ! तुम्हारी जननी भूखी – प्यासी
तुम्हें पुकार रहा हिमगिरि से, मैं जय का विश्वासी
जागो हे युग – युग के सोये, खोये, भारतवासी !

1946