mere bharat mere swadesh

वीर भारती

1
धौंस दिखा, पुटुठे चढ़ा, आँखें खूब तरेर,
जब तक सुप्त मृग्रेंद्र है, गीदड़! तू ही शेर
2
मरने पर भी दूर से, शत्रु ले रहा टोह
उँगली घोड़े पर चढ़ी, देख चढ़ी ही भौंह
3
मिट्टी छुटी न पाँव से, कर से रैफल-मूठ
दृष्टि न अरि के वक्ष से, प्राण गये बस छूट
4
इस रण-गंगा में धँसे, बढ़े चलो सोल्लास
पार हुए कैलास है, डूब गये कैलास
5
अश्रु बहाते कुछ चले, कुछ निकालते खीस
बड़भागी जो देश पर, चढ़ा चले निज शीश
6
हर कंधे पर सिर धरा, हर सिर में दो आँख
जिया वही जो देश-हित, यों तो जीते लाख
7
यह सँकरीला घाट है, दो असि एक न म्यान
आन धरो तो सिर नहीं, सिर जो धरो न आन
8
साठ बरस वायस जिये, अहि शत, कूर्म हजार
चढ़ा तड़ित के अश्व पर, वीर जिये दिन चार
9
सौ बारी रोगी मरे, भोगी मरे हजार
लाख बार कायर मरे, वीर एक ही बार
30
मरे न कविता रसमयी, मरे न सत्य विचार
रण में मरे न सूरमा, उठ-उठ करे हँकार
11
रण शय्या ही फूल की, व्रण-आभरण हज़ार
वीरों की तो ब्याहता, सानधरी तलवार
12
छेड़ी नागिन, कुलवधू, सानधरी तलवार
निकली तो, लौटी नहीं, काटे बिना हज़ार
13
देख पृष्ठ-दिशि शत्रु को, सैनिक उठा पुकार
नहीं मरण का दुख मुझे, पीठ छुई तलवार
14
बिना कहे रिपु-छद्म, तन डाल न देना द्वार
हँस न सकेगी नव-वंधू, देख पीठ पर वार
15
तन हारा, फिर भी नहीं, मन ने मानी हार
शिरस्त्राण उतरा नहीं, सिर दे दिया उतार
16
प्रिय लौटे, रण से उठी, प्रिया समोद, सशंक
दृग-मुद्रण-मिस पृष्ठ लग, समुद लगी फिर अंक
17
असन, वसन, वारूद कम, तन पर सौ-सौ घाव
फिर भी प्रण है वीर का, धरूँ न पीछे पाँव
18
प्राणांतक पीड़ा हुई, मरने पर ही ज्ञात
पहले रण की बात की, पीछे व्रण की बात
19
जलते उल्का-पिंड का, परिचय किसको ज्ञात!
सिंहों का क्या गोत्र है! वीरों की क्‍या जात!
20
चढ़ें शत्रु के शीश पर, या चढ़ चलें विमान
या तो जय, या देह-क्षय, यही हमारी आन
21
प्रिय को रण के हित सजा, बोली प्रिया कि नाथ!
मिलना अरि-पुर जीत कर, या सुरपुर में साथ
22
जन-रव सुन नाचे नटी, घन-रव सुनकर मोर
रण-रव सुनकर सूरमा, नाचे हर्ष-विभोर
23
धन्य वीर जो बन गये, पृष्ठ-सैन्य-हित सेतु
जिनके तन पर से चला, लहराता जय-केतु
24
धन्य जिन्होंने प्राण दे, रख ली माँ की शान
शीश कटे पर भी रहे, ऊँचा किये निशान
25
समर-मरण, फिर देश-हित, बोला वीर-‘ न सोच
एक बार ही दे सका, प्राण, यही संकोच’
26
अंग-अंग छलनी बने, फिर भी रुकी न साँस
भौं में तेवर देखकर, मृत्यु न आती पास
27
देख मरण ध्रुव भी नहीं, पलटा वीर-स्वभाव
तिल-तिलकर कटता रहा, तिल भर हटे न पाँव
28
वीर एक ही सुत भला, कायर नहीं हज़ार
सिंह एक रण जीतता, स्यारों की न कतार
29
जननी बोली पुत्र से, ‘रखना माँ की लाज
दूध सिंहनी का पिया, लड़ दिखलाना आज’
30
नभ में गरजे घन-घटा, ज्यों वन गरजे बनराज
रण में गरजे सूरमा, केसरिया पट साज
31
आखिर को मरते सभी, कुछ भी करो उपाय
मरना उसका जानिए, मरे अमर हो जाय
32
रण को सज बोली प्रिया, ‘प्रिय! मत करें विचार
लीक न यह सिंदूर की, शीश टँगी तलवार’
33
निष्प्रयास जो तार दे, यमगण को ललकार
या गंगा की धार है, या कृपाण की धार
34
लौटूँगा रण जीतकर, या दूँगा तन वार
कंठ-प्रिया-भुज-वल्लरी (कि) कंठ लगे तलवार
35
भुजा-भुजंग, कृपाण-भ्रू, माँग रुधिर-तलवार
चली वधू पति-मरण सुन, दुर्गा-सी हुंकार
३6
साथ बहे असि-धार पर, साथ सहे हिम-त्रास
साथ धँसे रिपु-ज्वार में, प्रथम चढ़े कैलाश!
37
दृष्टि न दी रिपु-नारि-दिशि, छुई न पुर की ईंट
जय-क्षय में आगे रहे, श्री-सम्मुख दी पीठ
38
घन की शोभा तड़ित से, वन की शोभा मोर
रण की शोभा वीर के असि की धार कठोर
39
वीर वहीं, वक्ता वही, पंडित वहीं सुनाम
जिये देश के काम में, मरे देश के काम
40
बाँझ भली, विधवा भली, पुत्र जने किस अर्थ।
आये काम न देश के, रण से फिरे समर्थ
41
वीर उसीको जानिये, रण से फिरे न हार
अपनी ग्रीवा पर करे, कुंठित शत्रु-कुठार
42
एक हिमालय से उलझ, शत्रु रहा दम तोड़
अभी हिमालय हैं यहाँ, चव्वालीस करोड़
43
दाँव देख घर में घुसे, दुबक पसारे पाँव
नींद ठगे, जागे भगे, चीनी, चोर, बिलाव
44
फिर चढ़ आज हिमाद्वि पर, त्रिपुर रहा ललकार
आग बने शिव-भाल की, यह गंगा की धार
45
कंचन-किंचन कुछ नहीं, बोला वीर निढाल
‘चुटकी धूल स्वदेश की, देना मुख में डाल’
46
जिस मिट्टी ने तन दिया, जिस मिट्टी ने प्राण
उस मिट्टी-हित मर सकूँ, दो, प्रभु। यह वरदान
47
घर में बाँबी साँप की, छप्पर अग्नि-झकोर
शत्रु घुसे सीमांत में, कब जागेगा और!
48
जागी महिष-विमर्दिनी, काली जगी कराल
जाग उठा कैलाश है, जागो त्र्यंबक-ज्वाल!
49
साधु न अहि पय-पान से, मगर दिये उपवीत!
नीति भेड़िये ने सुनी! ताड़न में ही जीत
50
रण-हिंसा हिंसा नहीं, वीर अहिंसा-धाम
गीता देकर कृष्ण ज्यों, सीता लेकर राम
51
चरण रुपे, भौंहें तनीं, भुज युग अधिक अधीर
जाग रही है वीरता, सोया यद्यपि वीर
52
हिमकर पश्चिम से उगे, पूरब डूबे भानु
नभ लोटे भू पर भले, वीर न टेके जानु
53
कायर तट पर मंत्र पढ़, चढ़ा रहे दधि, दूब
लाया मोती छीनकर, वीर सिंधु में डूब
54
सिंह जगे, वनचर भगे, रुकें न रोके लाख
आँख लगी थी पीठ पर, और पगों में पाँख
55
धँसा पंक में, बिद्ध-शर, गरज रहा मृगराज
तिल भर दया न माँगता, क्षणिक देह के काज
56
मान गये सब कुछ गया, मान रहे सब शेष
मान सहस्रों मिट गये, मानी मिटा न लेश
57
धौंसे की धमकार सुन, रुका न वीर निमेष
‘या तो लूँगा शत्रु-पुर या सुरपुर निःशेष’
58
जाति मर्त्य, कुल शूरता, साहस सहज स्वभाव
इसी खड़ग की धार के तीर हमारा गाँव
59
न्यौछावर जिस एक पर, धन, दारा, सुत, गेह
कीर्ति बचायी बीर ने, नहीं बचायी देह
60
पल में सभी भुला दिये, धन, द्वारा सुत, गेह
राष्ट्र-तुला पर वीर ने समुद तौल दी देह
61
द्रोण, भीष्म, अर्जुन कहाँ! कहाँ कर्ण का गेह!
कीर्ति न मरती वीर की, मरती केवल देह
62
प्रिया-वदन, मणि-सदन, सर, मुक्ता, सुक्ति हज़ार
सब बेपानी निमिष में, बेपानी तलवार
63
सुमन-सेज रण, चाँदनी, संगीनों की छाँह
चंद्रहास ही वीर को, चंद्रमुखी की बाँह
64
चले खड्ग की धार पर, असि-छाया विश्राम
इतिहासों के पृष्ठ पर, खुदा हमारा नाम
65
रगड़ अँगूठा, बीर ने, मिटा दिये विधि-अंक
चंद्रमुखी वामा नहीं, चंद्रहास अकलंक
66
चीनी मिट्टी से बने, रिपु-सैनिक, मत भूल
हाथी के-से दाँत ये, कागज के-से फूल
67
पति लौटे रण जीतकर, कि केवल आयी देह
जान सकी न पड़ोसिनी, देख दिवाली गेह
68
आप बुभूक्षित, मंदमति, नेता कपटी, क्रूर
दिखी शष्य-श्यामल धरा, गैंडे का न कसूर
69
वे दिन गये कि सत्य की स्वयं मची जयकार
आज न्याय के हाथ में, देनी है तलवार
70
फटा शीश, रण-मद हटा, भूल गया आलाप
भगा गजेंद्र, मृगेंद्र की, पड़े एक ही थाप
71
बीच न टिकने की जगह, या इस या उस पार
सान धरो तलवार पर कि म्यान धरो तलवार
72
मेघ न सरित न सर यहाँ, उड़ती धू-धू रेत
पानी धन्य कृपाण का, सदा हरे हैं खेत
73
गेह हमारा देह में, रण-भू रोपे खेत
ब्याह हुआ तलवार से, सुरपुर स्वसुर-निकेत
74
ठमक चली कटि से लगी छूती भुजा विशाल
उठी अंगना-अंग से ललक देख करवाल
75
घूँटे में ही सीख यह, ‘मरें की लौटें मार’
सिंहों के हित कब खुले बन में शिक्षागार!
76
प्रति-व्रण नव रण-मद चढ़े, बढ़े मरण की चाह
ज्यों-ज्यों तनु-शोणित कढ़े, उमड़े नव उत्साह
77
प्रिय का शंकित-रण-गमन देख प्रिया ने प्रात
पग-तल-विलुलित-कच-सहित सिर भेजा सौग़ात
78
रण-रव सुन बोली प्रिया, ग्रीवा फेर कृपाण
‘ऐसी लट का क्या करूँ, लटका प्रिय का ध्यान!’
79
जंग लगे तलवार पर, सदा रहे जो म्यान
प्रिये! पलक-यह मूँद लो, पल तो छूटे ध्यान
80
पुत्रवती युवती वही जिसके पय की धार
गंगा बनी स्वदेश-हित, गयी सप्त कुल तार
81
गंगा यमुना अब नहीं ब्रह्मपुत्र की धार
खड़ा हिमालय खींचकर ज्यों नंगी तलवार
82
सुमन-सुमन सैनिक तने, पत्र-पत्र जय-केतु
कली-कली बिजली बने, वन की रक्षा-हेतु
83
ख्याति अहिंसा की उधर, इधर जाति की लाज
भूखों मरे, न तृण चरे वनवासी वनराज
84
गयी पिन्हा चलते समय जो कंपित भुज-यष्टि
कवच बनी रण में, प्रिये! वही विजयिनी दृष्टि
85
धन्य भाग्य, आयी घड़ी, देखे दो-दो वार
चमक उठी रिपु-अंग लग, जंगलगी तलवार
86
शशक न स्यार, कि जोड़ दे तनु-गुरुता को हाथ
टक्कर पड़ी गजेंद्र की अब मृगेंद्र के साथ
87
चढ़ी चिता के यान पर, अंक प्राण-पति-देह
नयी बहू जैसी चली समुद पिता के गेह
88
दिल्लीपति, चित्तौरपति, जगपति काँपे देख
शत-शत पद्मिनियाँ गयीं, सर को फिरी न एक
89
गंगा बड़ी न गोमती, सरयू के भू-भाग
जहाँ गिरा सिर वीर का, तीरथ वही प्रयाग
90
बढ़ तोपों की दाढ़ में, रख ले माँ की लाज
वसुधा, सुधा, सुधाधया उसी वीर की आज
91
बोली कायर की प्रिया, छुयें न तन ये हाथ
जो तुमने दी शत्रु को सो हमसे लो, नाथ!
92
शोणित-मसि, असि-लेखनी, रण-भू कोरे पृष्ठ
प्रति अक्षर शिर शत्रु का, काव्य वही उत्कृष्ट
93
फिरूँ न रण से, देश-हित शत जीवन दो, ईश!
वामन के-से चरण दो, रावण के-से शीश
94
शांति-क्रांति, रति-विरति हो भू यह भारतवर्ष
कुसुमादपि सुकुमार है वज्रादपि दुर्धर्ष
95
दिखे बिना निज-जय-ध्वजा, प्रण, कि न मूँदूँ आँख
उधर मरण व्रण लाख ले, इधर वीर की साख
96
फिर आया, फिर-फिर गया विफल द्वार से ऐँठ
अनुमति से ही वीर की मरण पा सका पैठ
97
आप चुने प्रस्थान-क्षण, निज से चढ़े विमान
चले विहँस यम तक स्वयं, यही वीर की शान
98
“सिर काटे ही सिर रहे, सिर रक्खे सिर जाय’
जैसे कलम गुलाब की बढ़े न अन्य उपाय
99
जब तक कढ़े न मूलतः: सुख की कढ़े न साँस
शत्रु घुसे सीमांत में (कि) घुसी दाँत में फाँस
100
उन्नत-सिर, क्षत-तन लिये मुदित यहाँ के लोग
अंग कटे, अंगी बढ़े यह कैसा है रोग!
101
“ना’ कह दिया न अर्ध थल,राणा की थी शान
हाथ जोड़ हाथी चढ़े, फिर भी मान अमान
102
ज्वार पकड़कर सब बढ़ें, सहज बनावें काम
भाटे के सिर से चढ़े, वीर उसीका नाम
103
पूर्व युद्ध प्रस्थान के, झटक तनिक लो भाँप
हो बारूद न जीन में, आस्तीन में साँप
104
रिपु-सम्मुख, यम शीश पर, तम-पथ रहा न सूझ
सिंहवाहिनी दाहिनी, बढ़ते चलो अबूझ
105
प्रिये। पत्र-परिरंभ लो नयन अश्रु में बोर
अब की होली और से, रंग और ही और
106
भ्रमवश छुई बिलाव के, केहरि-शिशु की मूँछ
गुर्राहट सुन कर भगे स्वान दबाये पूँछ
107
अंग-अंग कटकर गिरें, मृत्यु खड़ी हो वाम
मातृभूमि तब भी रहे, मुख पर तेरा नाम
108
जहाँ वीर के रक्त की गिरी बूँद भी एक
शीश झुकाते देव भी उस धरती को देख

१. ये दोहे उसी क्रम से प्रकाशित हैं जिस क्रम से लिखे गये थे।
2. बंदूक छोड़ने के खटके को घोड़ा कहते हैं ।