mere geet tumhara swar ho
दोष जो संतों ने बतलाये
एक-एककर वे सारे मैंने निज में ही पाये
मुँह से तो था निन्दा करता
सदा साधुता का दम भरता
आप लोभ, ईर्ष्या, मत्सरता
मन में रहा छिपाये
जड़ प्रवृत्ति, भोगों की प्यासी
तुम्हें विदित थी, अंतरवासी!
क्यों न दिया वह बल, सुरसा-सी
रह जाती मुँह बाये!
ज्ञान, विवेक, वचन संतों के
निष्फल, मन यदि रुके न रोके
त्राण कहाँ, दल में चोरों के
रक्षक जब मिल जाये
दोष जो संतों ने बतलाये
एक-एककर वे सारे मैंने निज में ही पाये