mere geet tumhara swar ho

एक अवलंब तुम्हीं, प्रभु ! मेरे
बाकी सभी मील के पत्थर, छूटें साँझ-सवेरे

मैंने निशि-दिन जड़ प्रवृतिवश
लिया क्षणिक सुख-भोगों में रस
अब सुध हुई, काल डोरे कस

लगा रहा जब फेरे

हे अव्यक्त, अनाम, अनिर्वच !
सोये भी तुम सृष्टि-नियम रच
पर यदि मेरी श्रद्धा हो सच

नींद रहे क्यों घेरे !

नभ की और टकटकी बाँधे
मैं बैठा हूँ पथ पर आधे
रहो मौनव्रत भी यदि साधे

पल तो रहो अँधेरे

एक अवलंब तुम्हीं, प्रभु ! मेरे
बाकी सभी मील के पत्थर, छूटें साँझ-सवेरे