mere geet tumhara swar ho
भाव वे तुमको भी छू पाये
मैं अपने मन में जिनको रहता था सदा छिपाये |!
हास और परिहास-क्षणों में
चमक रहे थे जो नयनों में
क्या वे मधुर भाव सपनों में
तुम तक मुझको लाये ?
ज्यों मैंने की काली रातें
सोच-सोच मिलने की घातें
कभी तुम्हें भी वैसी बातें
रहती थीं बिलमाये ?
दोष न थी अनुभूति हृदय की
क्या होगा अब पछताकर भी !
यदि मुझ-सी ही ललक तुम्हें थी
क्यों हम रहे पराये ?
भाव वे तुमको भी छू पाये
मैं अपने मन में जिनको रहता था सदा छिपाये !
फरवरी 05