mere geet tumhara swar ho
मुझे तो है, प्रभु! यह विश्वास
सदा रहूँगा आत्मरूप मैं बनकर तेरा दास
छूटें भी जड़ बंधन सारे
प्राण अस्मिता से कब न्यारे!
कैसे मुझको, जब तन हारे
मरण करे निज ग्रास!
हो अविभक्त एक चेतनता
जिससे अखिल जीव जग बनता
पर जीवन क्या, यदि न अहंता
चित् में करे निवास
मुक्ति-भुक्ति में जो है अंतर
उसे बनाये रख, जगदीश्वर!
तुझे न भूलूँ, दे बस यह वर
जब छूटे यह साँस
मुझे तो है, प्रभु! यह विश्वास
सदा रहूँगा आत्मरूप मैं बनकर तेरा दास