mere geet tumhara swar ho

ओ मेरे चिर-संगी!
छिपी न तुझसे, आँकी जो मैंने छवियाँ बहुरंगी

तू मुस्काता देख रहा यह
मेरे भक्ति-पदों का संग्रह
सुनता अंतर में रह अहरह

भावों की सारंगी

कर्म-भोग जो भी हो मेरा
सिर पर सदा हाथ है तेरा
क्या, यदि साथ किए भी डेरा

दूर अंग से अंगी!

जो चारों फल गये बखाने
मैंने इसी प्रेम में जाने
कौन मुक्ति का हठ अब ठाने

लगा समाधि अभंगी!

ओ मेरे चिर-संगी!
छिपी न तुझसे, आँकी जो मैंने छवियाँ बहुरंगी