mere geet tumhara swar ho

आत्मिका

मानव-हृदय ने प्रैम-राग जो सहेजा था
भाग्य ने उसे हीं आँकने को मुझे भेजा था
साध तो यही थी कभी लेखनी रुके न, किंतु
पाऊँ अब कहाँ जो सवा हाथ का कलेजा था !

भावुक हृदय को जो मिला था तंत्र गान का
पाया उसमें ही मंत्र आत्म-निर्माण का
प्रभु की कृपा भी मिली, लोभ अब क्‍यों हो मुझे
पा ये वरदान किसी अन्य बड़े दान का !

कविता का मंत्र जो लिया था अनजाने में
आयु बीत रही है उसी को आजमाने में
घेरते ही जा रहे है नित्य नये तंत्र जिसे
मैं तो बस लगा हूँ उस मनुष्य को बचाने में

व्यर्थ हों प्रयत्न जिनमें भी हाथ डाला था
काव्य यह मेरा भगवती ने पर सँभाला था
जो भी है भला या बुरा, बंधु ! सौपता हूँ तुम्हें
मैने भावलोक जो हृदय में सदा पाला था