meri urdu ghazalen

दर्द-दिल होने लगा, दर्दे-जिगर होने लगा
रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़ का सीने में घर होने लगा

बढ़ते-बढ़ते हुस्न का रुतबा यहाँ तक बढ़ गया,
जिसको देखा भर नज़र, पेशे-नज़र होने लगा

चार-रोज़ा ज़िंदगी में चारयारी क्या करें!
बैठ भी पाये न, सामाने-सफ़र होने लगा

ज़िन्दगी के साथ हमशीरा थी पैदा मौत भी,
मैं कभी इसकी, कभी उसकी नज़र होने लगा

बेरुख़ी के साथ कुछ उलझन भी है रुख़सार पर,
अब तो मेरी आह में शायद असर होने लगा