meri urdu ghazalen

रुबाई और कता
1
सुबह देखा था जिसे शाम न था
बंदगी का कोई अंजाम न था
साफ कह दूँ तो तेरी दुनिया में
हम को मरने के सिवा काम न था

2
हम निगाहें चुराये जाते हे
दिल को पत्थर बनाये जाते हैं
हुस्न की शोखियों को क्या कहिए !
वे जिगर में समाये जाते हें

3
गुल होती चली जाती है तारों की चमक
हर मुर्गे-सहर दे रहा उठने का सबक
तैयारी करो अब भी तो सफर के लिए
दिखने लगी बालों पे सुफैदी की झलक

4
सामाने-सफर खम हुआ, हुआ न हुआ
जो कुछ भी लबे-दम हुआ, हुआ न हुआ
ख़त यार का पाते ही हुए रुख़सत हम
साथी कोई हमदम हुआ, हुआ न हुआ

5
यह बागे-अजल मेरी नज़रपोशी है
सौ हश्र मेरी एक ही ख़ामोशी है
रौशन है मेरे दम से ये महफिल सारी
दुनिया तेरी क्यास है, मेरी मदहोशी है

6
पोशीदा जो हें ज़र्रे में वह राज़ हूँ मैं
हर साँस में बजता जो वही साज हूँ मैं
किस वज्म में रौशन नहीं जल्वा मेरा
ख़ामोशिये-महशर की भी आवाज़ हूँ मैं

7
मैं हुस्न को तकरीर दिया करता हूँ
तकरीर को तस्वीर दिया करता हूँ.
बागे-जहाँ का बुलबुल मैं, गुले-नग्मों से
पत्थर के जिगर चीर दिया करता हूँ

8
सब अहले-नज्‌र मुझको नज़र देते हें
नाले मेरे पत्थर को जिगर देते हैं
शेरों पे मेरे कितनी हसीने हैं निसार
ये हुस्न को भी इश्क का कर देते है

9
जो शाम को थे, कब वे सहर आते हैं
हर रंग के सौदाइए-सर आते हैं
है लैलिये-दुनिया तो वही एक, मगर
मजनू नये हर रोज़ नजर आते है
10
अब तो दुश्वार हुआ जीना भी
चाक दामन को बैठ सीना भी
लुत्फ क्या आये तेरी महफिल में
जब मना हो गया है पीना भी !