meri urdu ghazalen
रोक देती साज़े-हस्ती मौत की क्या थी मज़ाल !
अहद था शबनम का ख़ुद ही मौजे-दरिया से बिसाल
मैं हूँ इस बागे-जहाँ का, रंगों-बू, हुस्नो-जमाल
जल रही है मेरे दम से चाँद-सूरज की मशाल
जिस हसीं सूरत पे अपनी, नाज़ करती ज़िंदगी
मौत ले जाती भरी महफिल से दम भर में उछाल
कैसी-कैसी शै तुझे सौंपी हैं हमने, ऐे अजल!
अपने घर को फूँक तुझको कर दिया है मालोमाल
कान में जिनकी सदा थी गूँजती आठों पहर
आज उनसे ख़्वाब में भी बात करना है मुहाल
आज तो दम भर नहीं फुरसत कि आकर बोल ले
एक झलक को फिर मेरी तरसेगी दुनिया सालों-साल
यों तो हर आग़ाज़ का अंजाम आख़िर मौत है
मरके भी मरते नहीं लेकिन कभी अहले-कमाल
आसमाँ से बात कर लूँगा, जरा फुरसत तो हो
आज तो सोज़े-जमीं से ज़िंदगी है खस्ता-हाल
ढूँढते हैं राख मेरी आबे-गंगा छानकर
आके भी किस वक्त आया उनको मिलने का ख़याल
नाज़ था जिन पर अदब को सारे हिन्दुस्तान के
अब कहाँ हैं वे सरीरे-साहबे सीरी मकाल