nahin viram liya hai

राम में नहीं, काम में रमता
कैसे इस मन से कर लेता मैं तुलसी की समता!

अंतर में रसघन भी घुमड़े
बनकर भक्ति-प्रवाह न उमड़े
क्या देते कागज़ के टुकड़े

वाणी में वह क्षमता!

भुला उसे, सुर दे जो लाया
मैंने अपने को ही गाया
छलती रही मोह की माया

छुटी न जग की ममता

रहें कनक-घट भी यदि रीते
क्या फल क्षणिक सिद्धियाँ जीते!
करते नृत्य बहुत दिन बीते

यह क्रम अब तो थमता

राम में नहीं, काम में रमता
कैसे इस मन से कर लेता मैं तुलसी की समता!