nahin viram liya hai
कहाँ इस रथ पर आड़ लगाऊँ?
जी तो करता है इस पर बढ़ता ही बढ़ता जाऊँ
मोहपाश ग्रीवा में डाले
काम-तुरंग जुते मतवाले
जो विवेक की बाग सँभाले
सारथि किसे बनाऊँ?
अणु से ले नभ के ग्रह-तारक
चक्कर में हैं सभी आज तक
ढूँढ़ तुझे ये आप गये थक
मैं इनसे क्या पाऊँ?
ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, योगबल
नहीं एक का भी है संबल
रही अहम् की मृगतृष्णा छल
कैसे तुझ तक आऊँ!
कहाँ इस रथ पर आड़ लगाऊँ?
जी तो करता है इस पर बढ़ता ही बढ़ता जाऊँ