naye prabhat ki angdaiyiyan
तब और अब
कभी कविता का युग था
जब वसंत आते ही
हवा में शंख-से बज उठते थे,
द्वार-द्वार बन्दनवारों से सज उठते थे।
उन दिनों लोग
एक दूसरे का सुख-दुःख बाँटते थे,
कभी मस्ती में आल्हा टेरते
और कभी कवितायें पढ़-पढ़कर भी दिन काटते थे।
और कभी कवि का युग था,
जब घर-घर,गाँव-गाँव
लोग झूम-झूमकर उसके गीत गाते थे
देवता के बाद सबसे ऊँचे आसन पर
उसे ही बिठाते थे।
राजसभा में जब उसकी ग्रीवा
पंडितों के साधुवाद से झुक जाती थी,
और चिक की ओट में बैठी राजकुमारी
गीत सुनते नहीं अघाती थी।
अब तो क्या कविता! क्या कवि!
धूमिल हो चुकी है दोनों की छवि.
यों तो विविध रंग-रूपों में सजी
कविता अब भी गगन-पथ से उतरती है
पर आलते की रेखाओं-सी
वह केवल पत्र-पत्रिकाओं के कलेवर ही भरती है;
उसे दो ही व्यक्ति पढ़ते हैं,
कवि और कंपोजीटर,
न उसके नाप-तौल का कोई बटखरा है,
न पैमाइश का कोई मीटर।
जाने, सुने, समझे उसे कौन
यही प्रश्न है!
अर्जुन से धैर्यवान श्रोता की तलाश में
हर मुरलीवादक यहाँ कृष्ण है,
पहलवान ही पहलवान से लड़ता है,
अब तो केवल कवि ही कवि को सुनता है,
कवि ही कवि को पढ़ता है।
1982