naye prabhat ki angdaiyiyan

अस्तित्व

प्रश्न यह नहीं है
कि कौन हूँ मैं, क्या हूँ मैं,
प्रश्न तो यह है
कि हूँ भी या नहीं हूँ,और
हूँ तो क्या शाश्वत वही
या नित नया हूँ मैं।
मैं जो आज हँसता हूँ, बोलता हूँ,
जीवन पुस्तक के नये पृष्ठ क्षण-क्षण खोलता हूँ
मैं स्वयं हूँ भी या नहीं हूँ,
यही प्रश्न है,

यदि मैं नहीं हूँ तो
पूछना ही व्यर्थ है,
कौन पूछे किससे और उत्तर दे किसको, कौन?
सब कुछ निर्वैयक्तिक है
सब कुछ निरर्थ है।
पर यदि मैं हूँ तो इतना प्रत्यक्ष है,
काल-खंड से है अविभक्त मेरा होना सदा
चाहे कितना भी वह अगोचर है, अलक्ष्य है.
चाहे उन्नीसवीं सदी में मुझे ढूँढें आप
चाहे इक्कीसवीं सदी के उत्तरार्ध में,
मिलना चाहें मुझसे तो उत्तर बस होगा यही,
मैं नहीं, आप नहीं, कोई नहीं, कुछ नहीं,
किन्तु यदि आपका है प्रश्न
इसी क्षण के लिए,
इसी पखवारे, इसी मास, इसी सन् के लिए–
तो मैं कहूँगा निश्चय ही
मैं हूँ यहाँ,
जो भी प्रमाण चाहते हो
अभी दूँ यहाँ।

1983