naye prabhat ki angdaiyiyan

स्वर्ण-पिंजर का कीर

ओ स्नेहमयी माँ!
तूने मुझे इतने चटकीले वस्त्रों में क्यों सजा दिया |
हाथों में बाँसुरी तो दी,
सिर पर यह मोरपंख क्‍यों लगा दिया!

मेरा जी तो करता है,
क्षणभर इस हरी घास पर बैठकर
तेरी दी हुई बाँसुरी में फूँक मारूँ,
इस मटमैली तलैया में जलपाखी-सा उतर जाऊँ,
इस आम की डाल पर चढ़कर
कोयल-सा तुझे पुकारूँ
पर मेरा श्रृंगार
मेरे पाँवों की जंजीर बन गया है,
उड़ने को स्वतंत्र होकर भी मेरा हृदय
स्वर्ण-पिंजर का कीर बन गया है;

प्रेम की अतिशयता में
तुझे शायद यह ध्यान ही नहीं रहा
कि हर वंशी-वादक कन्हैया नहीं होता है,
वह तो अन्य ग्वाल-बालों-सा ही
जीत में खुश हो-होकर नाचता है,
हार में फूट-फूटकर रोता है।

ओ ममतामयी !
तूने बाहर से तो
मुझे पीतांबरधारी गोपाल-सा सजा दिया,
पर भीतर से मेरे मन को
इतना भीरु और दुर्बल क्‍यों बना दिया!

 

1983