nupur bandhe charan
गाता था कोई विरही वन-वन यों,
‘बाँध अलक की काली जंजीरों से
एक पथिक-बाला ने मेरे मन को,
बेध दिया निज चितवन के तीरों से
‘घायल कर वह चपल मुझे निर्दय-सी
हँसती-सी भी द्वुतपद चली सभय-सी
कौतुकमय, भोलेपन के अभिनय-सी
फैलाती-सी हिम-अपांग निःस्वन, ज्यों
प्रभा-सरित फूटी हो दो हीरों से
‘अरुण कपोल, हिमोज्वल ग्रीवा मोड़े
तिरछी झुक वह, खेत पार कर चौड़े–
ओझल हुई, चरण ज्यों मृग के जोड़े–
छिपे कुंज में, करते मुझ निर्धन को
वंदी पर्वत की प्राचीरों से
‘वह प्रभात, अब संध्या ठंडी, भूरी
सन्नाटे में चित्रमयी यह दूरी
सचमुच जादूगरनी थी वह पूरी
ढूँढ़ी विफल गयी थी छाया-तन जो
अति प्राचीन युगों के वीरों से’
गाता था कोई विरही वन-वन यों,
‘बाँध अलक की काली जंजीरों से
एक पंथिक-वाला ने मेरे मन को
बेध दिया निज चितवन के तीरों से’
1944