nupur bandhe charan

मैं न रहूँगा, यहाँ न होगी मेरी कहीं निशानी ही
कहने-सुनने को रह जायेगी बस एक कहानी ही
बीत रहे दिन, पक्ष, मास, जीवन-वसंत हो शेष चला
आता है पतझड़ उपवन में, पंछी अपने देश चला
यह चंचल नगरी अंचल-सी, क्रीड़ा, कौतुक हास्य यहाँ
क्वणित भवन, छवि-चित्रित गलियाँ, यौवन एक उपास्य यहाँ
याद मुझे है जब कोई इसमें सहमी-सी पैठी थी
और सकुचती हुई स्वर्ण-सिंहासन पर आ बैठी थी
वह इस नगरी की रानी थी, तब मैं भी तो आया था
मंद-मंद हँस सखियों ने आपस में भेद छिपाया था
कितनों को स्मिति में बँध मैंने पास खिँचे आते देखा
खींच चला कितने हृदयों पर अपने परिचय की रेखा
यह यौवन का उषाकाल था, पाने का, खो जाने का
बीत गया जो समय सुनहला, नहीं लौटकर आने का
घायल मन, दुर्बल शरीर, आत्मा में क्रंदन-गीत लिये
चला आज मैं नयनों में धुँधला-सा स्वर्ण-अतीत लिये
पश्चिम क्षितिज पार से कोई मुझको आज रहा है खींच
आगे है जलता मरुथल, अब चलना होगा जिसके बीच
गहरी नीलम की घाटी फिर संध्या-रंगों में डूबी
चलती जिस पर धूमिल यात्री-पंक्ति दिवस-श्रम से ऊबी
उसके पार एक काला सागर है बिना तरंगों का
जिसमें वृहत्‌ जहाज खड़ा है इंद्रधनुष के रंगों का
फेन उगलता ले जायेगा वह परियों के द्वीप मुझे
जो हँसकर कुम्हला जायेंगी, आते देख समीप मुझे
मलयज नीरव साँस भरेगी सूने महल, झरोखों में
काँप उठेंगे मकड़ी के जाले, गुंबज की नोकों में

1943

* स्नातक बनने के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय छोड़ते समय