nupur bandhe charan
मैं यौवन को पंखुरियाँ खोल रहा हूँ
मधु की निर्झरिणी-सी उमड़ चली
शब्दों की अवली
साँचे में ढली
मेरी कविता कोकिल की काकली
मैं कुंजों में करता कल्लोल रहा हूँ
रूंप-राग के फाग घने उड़ते
नयन-कोर मुड़ते
प्याले जुड़ते
ज्वार-वासना, बंध निखिल तुड़ते
मैं मदिरा में मादकता घोल रहा हूँ
चुप, अतीत, नीले नयनों में तिरते
कहाँ विकल फिरते—
ये जन, अस्थिरते !
बीत गया सुख, दुख के बादल घिरते
मैं सन्नाटे के भीतर बोल रहा हूँ
सम्मुख अतल महोदधि-सा अज्ञात
मैं तट पर तमसात्–
जग के, आधी रात
किससे पूछूँ चिर-रहस्य की बात?
मैं भावों से गहराई तोल रहा हूँ
मैं यौवन की पंखुरियाँ खोल रहा हूँ
1941