nupur bandhe charan
रोते-रोते चुका नयन का पानी, तिल भर झुकी नहीं
धीरे-धीरे चली गयी पाषाणी, रोके रुकी नहीं
रूठ गयी क्यों? वह तो करुणामय थी
मुझ पर तो स्मिति-भाषी, सदा सदय थी
वे यौवन-चंचलतायें अभिनय थीं?
कैसे सचमुच यों जानी-अनजानी होके रुकी नहीं!
ठिठकी, फिर भी चली गयी पाषाणी, रोके रुकी नहीं
कुम्हलाये थे अधर, गात पीला था,
चली गयी क्यों? भुज-बंधन ढीला था?
मर्माहत भी आनन गर्वीला था
नयनों में उपहास लिये अभिमानी होके रुकी नहीं
क्षमा-दान दे चली गयी, पाषाणी रोके रुकी नहीं
कायर, दोषी, सरल हृदय यह मेरा
जाते क्षण मुट्ठी में लेकर फेरा
देखा मैंने मुख ममत्व से घेरा
झंझा में घन-घटा सदृश दीवानी होके रुकी नहीं
जल बरसाती चली गयी पाषाणी, रोके रुकी नहीं
1942