nupur bandhe charan

लहरों के तल में सुहासिनी मेरी
डूब गयी धीरे, धीरे, धीरे
पागल-सा बेसुध देता मैं फेरी,
क्रूर, कुटिल संसृति-सागर-तीरे

मेघ-मलिन-नभ, मूक दिशा, स्थिर धरती
आत्मा मेरी जल के बीच उतरती
शून्य भवन में परियाँ क्रंदन करतीं
आँसू की बरसा कर मौक्तिक ढेरी

नयन चमकते जिनके ज्यों हीरे

मेरी राधा उनके बीच नहीं है
वह लहरों में आँखें मींच बही है
मुझको उसकी छाया खींच रही है
त्तट-तट फिरती जल-नागों से घेरी

सिंधु-सुता-सी जो बाँहें चीरे

देह न मिली, अदेह हुई वह क्षीणा
प्राप्त अलक ही मुझे हाथ की वीणा
विरह-विकल गूँजेगी तान नवीना
जिससे फटकर सिंधु-समाधि अँधेरी

सुला पास में लेगी मुझको भी रे!
लहरों के तल में सुहासिनी मेरी,
डूब गयी धीरे, धीरे, धीरे

1946