nupur bandhe charan

एक कुम्हार-बाला के प्रति

मिट्टी का आँगन, मिट्टी का घर, मिट्टी की चाकी
मिट्टीसनी कर्मरत करतलियाँ, मँहदी से आँकी
अभी पूर्ण युवती कहलाने में कुछ दिन हैं बाकी
क्या गढ़ती है मिट्टी से तू, ओ बालिके कला की ?
किसको आकृति इन पिंडों से समुद निकाल रही है?
मधुर स्पर्श से जड़ में भी तू जीवन डाल रही है
रुक्ष अलक पलकों पर बारंबार सँभाल रही है
श्रमकणमय भौं, झेल वृथा! क्‍यों ये जंजाल रही है?
अरी | कुमारी-हृदय द्रवित चिर
मोम-सदृश रहता है अस्थिर
स्नेह-सरोबर_ ढलमल
बहे किधर जाने कल?
बिना शब्द की तान, तरी यह जिसमें पाल नहीं है
हृदय-भित्ति पर कल खिंच आये जाने किसकी झाँकी ?
जाने किसकी बाँह बने कल जयमाला ग्रीवा की?
किस राजा का कुँवर, अरी! यह कौन देश से आया?
चढ़ा अश्व पर तूने जिसका तिरछा मुकुट बनाया
बाने लाल, जड़ाऊँ कटि में असि, पग बिना सजाया
क्या यह क्षीण मूँछवाला गोरा पति तुझकों भाया?
या वह ऊँचा बाँध मुरेठा
सैनिक जो सित हय पर बैठा
अथवा जो पलड़ों पर
तौल रहा जौ झुककर
किंवा इस धीवर पर तूने अपना हृदय लुटाया?
या रुचती तुझको उस तरुण खेतिहर को छवि बाँकी
जैसा एक लजाया उस दिन सुनकर बातें माँ की?
यह काली गैया बछड़े पर झुकी पूँछ टेढ़ी कर
क्या मातृत्व इसी-सा तुझ में धुलता रहता निःस्वर?
सिंह बनाते समय न काँपी गोल कलाई थर-थर!
कुमारिके ! शिव-शिवा ढाल तू गयी न लज्जा से मर!
श्याम कृष्ण-सँग राधा गोरी
कहते तेरे मन की चोरी
भुज-मृणाल उठते यों
ज्यों नृत्य में सृजन हों
यौवन की अभिव्यक्ति गुलाई देती घट के मुख पर
नृत्य देखता ज्यों मैं, झुकती जब तू तिरछी-बाँकी
चल उँगलियाँ, बाँह शतमुद्रा, चंचल भौंह, बुलाकी
अँगड़ाई भरती तू, हँसता वह बैलों का स्वामी
सिर धुन दाढ़ीवाला धुनिया भरता छवि की हामी
क्रुद्ध देख शुक नासा, मछली नयनों की अनुगामी
वह युवती ईर्ष्यकुल, कूएँ में गिरने से थामी
हाट स्तब्ध है सारी
रूप-विकल नर-नारी
तकते साँसें. खींचे
मोची नतमुख नीचे
रख पालकी कहार खड़ें वे उठा पलक बादामी
चरती गाय घास यह अब तक नहीं किसीने हाँकी
मान गया मैं जादू करती चितवन सुंदरता की
कक्ष-द्वार पर लंबग्रीव यह कैसा हंस बनाया!
दमयंती का नाटक तुझकों किसने भला सुनाया?
यह डोली, ससुराल जायगा इस पर तुझे बुलाया
जहाँ सास यह रूप देख बाँटेगी धान सवाया!
सो जाने पर गृह में सबके
आयेंगे जीवन-धन दुबके
तेरी कोमल बाँहें
कितना भी बे चाहें
खड़ी मौन कोने में रहना छिपा प्रकंपित काया
खोल न देना प्रथम निशा में गाँठ अधर-कलिका की
फिर न लौटती, री! लुट जाती निधि जो कुमारिका की
मिट्टी का आँगन, मिट्टी का घर, मिट्टी की चाकी

1945