prit na kariyo koi
चौथा सर्ग
जगी सुनके ‘दीदी’ की आवाज़ को
खड़ी थी मेरे सामने आके जो
भरी नींद में, अजनबी की तरह
दिखी पास भी दूर-सी मुझको वह
लिया जैसे उसने था जोगन का भेस
लगी देखते ही मेरे दिल को ठेस
वही हुस्न था सिर से तो पाँव तक
नज़र में थी पहले ही जैसी चमक
मगर आइने पर पड़ी जैसे गर्द
हुआ कुछ दिनों में ही चेहरा था ज़र्द
नहीं था वो मोती में पहले-सा आब
थे कुम्हला गये गाल पर के गुलाब
सहमती हुई, हो न सपना कहीं
बढ़ी दो क़दम, रुक गयी फिर वहीं
दिया रखके, बाँहों को फैलाये झट
वो मेरे गले से गयी फिर लिपट
कहा–‘ भाग्य जागे कि दर्शन हुए
मैं डरती थी, जाऊँ बिना पग छुए
निभाया है तुमने तो वादा ज़रूर
मगर मैं निकल आयी अब इतनी दूर
कि मंजिल की पहचान ही खो गयी
परायी ख़ुद अपने लिए हो गयी
अँधेर है आगे जिधर जाऊँ मैं
नहीं सूझता अब, किधर जाऊँ मैं
“कभी सोचती, जाऊँ ऐसी जगह
कि छूटे जहाँ जी का जंजाल यह
नये रूप में फिर नये भेस में
तुम्हें फिर से पाऊँ नये देश में’
नहीं और ख़ुद को सकी वह सँभाल
हुई बोलते-बोलते ही निढाल
‘नहीं प्यार का अब कभी लूँगी नाम
मैं दुनिया को ही कर चुकी हूँ सलाम
है मंजूर यों ही तड़पना मुझे
दिखाओ न फिर कोई सपना मुझे’
कहा उसके भाई ने बढ़कर तभी
‘भूलां दें, बहन ने कहा जो अभी
ज़रा रखके देखें तो सीने पे हाथ
कभी आपका दिल से छूटा है साथ
पड़ी जैसे हों बेड़ियाँ पाँव में
किसीसे भी मिलती नहीं गाँव में
न होता अगर एक छोटा-सा खेत
यहाँ फाँकती बैठ जमना की रेत
छुटी इससे दुनिया, छुटा क्या शहर
ये डर है, न खा ले किसी दिन ज़हर
इसे फिर नयी ज़िंदगी दीजिए
निभा प्यार अपना, बचा लीजिए
नया घर हो इसका नया नाम हो
नयी हो सुबह फिर नयी शाम हो
‘उधर देखिए चाँदनी खिल चुकी
चलूँ, नींद आँखों में आती झुकी’
हुआ बोलकर जब वो नज़रों से दूर
कहा मैंने जैसे नशे में हो चूर
‘मेरी ज़िंदगी! मेरा दिल! मेरी जान!
यही मैं भी आया हूँ अब जी में ठान
मुझे कुछ न दुनिया की परवाह है
रहे साथ बस तू, यही चाह है
कहे कुछ भी कोई, मुझे डर नहीं
जहाँ ख़ुश रहे तू, रहूँगा वहीं
नहीं तंग दुनिया भी इतनी कि जो
जगह दो दिलों के लिए भी न हो
नहीं प्यार को घेर सकती कभी
उठे लाख लोहे की दीवार भी
‘हज़ारों बलायें थीं सिर पर, मगर
सभी ओर से मैं फिराकर नज़र
चला आया तेरे लिए, जानेमन!
सजाने को डोली में फूलों-सा तन
कराने को हलदी से पीले ये हाथ
बसाने को दुनिया नयी तेरे साथ
‘किया तो बहुत तूने छिपकर मुकाम
मगर दूँढ़कर ही रहा यह गुलाम
ये जमना तो क्या, तू समंदर भी पार
जो छिपती कहीं, मानता मैं न हार
मैं जंगल, पहाड़ों की भी ख़ाक छान
तुझे पाके ही छोड़ता, मेरी जान!
लगन दिल की सच्ची जिसे हो लगी,
ये दुनिया उसे रोक सकती कभी!’
सिहर-सी उठी मेरे छूने के साथ
पलटती हुई खींचकर अपना हाथ
कहा उसने तिरछी घुमाकर नज़र
‘मुझे नाज़ है अपने फ़रहाद पर
अगर दो दिलों का ही होता सवाल
तो करता हमें दूर, किसकी मज़ाल!
मगर हैं न दुनिया में बस दो हमी
ख़ुशी चाहता है हरेक आदमी
न मंजूर वह रौशनी है मुझे
किसी घर का जिससे दिया ही बुझे
‘सभी राह की मुश्किलें झेलकर
भरी रात में, जान पर खेलकर
यहाँ जिस तरह चलके तुम आ गये
कहूँ कितना दिल को मेरे भा गये!
मगर, वह अटक-सी गयी बोलकर
गया जैसे दम भर में चेहरा उतर
“कभी अपनी किस्मत पे फूली थी मैं
तुम्हें पाके दुनिया को भूली थी मैं
नशा प्यार का इस क़दर था चढ़ा
कि दिल अपनी हद से भी आगे बढ़ा
तुरत आ गया होश लेकिन मुझे
पड़ा ख़त मिला एक जिस दिन मुझे
लगी सोचने मैं यही बारबार
“है पहले ही क्या कम गुनाहों का भार
कि मैं यह नया सर पे इल्ज़ाम लूँ
बना एक बस्ती को वीरान दूँ
लगाकर किसीके भरे घर में आग
जिऊँ छीनकर मैं किसीका सुहाग
नहीं, मुझसे होगा न ऐसा गुनाह
मेरे प्यार से कोई क्योंस हो तबाह!
करूँगी न मंजूर ऐसी ख़ुशी
करे जिससे कोई कहीं ख़ुदकुशी
‘किसीकी सुखी ज़िंदगी कर ख़राब
मैं मरने पे दूँगी वहाँ क्या जवाब!”
“बुझाकर उमीदों के जगमग दिये
यही सोचकर, दिल पे काबू किये
बहुत मैंने चाहा तुम्हें भूलकर
रहूँ फिर से पहले-सी ही बन-सँवर
मगर दिल में तुम इस तरह थे बसे
कि मिलती नहीं थी नज़र और से
तुम्हारे लिए हो भी दिल की लगी
थी मेरे लिए कुल वही ज़िंदगी
“यहाँ आ गयी छोड़कर सारे ठाठ
भरोसा था, दिन गाँव में लूँगी काट
रहूँगी यहाँ इस तरह होके गुम
कि ढूँढ़ो मुझे लाख, पाओ न तुम
मगर देखती हूँ कि तुम कम नहीं
बनी मैं भी होती जो रत्ना कहीं
तो कहती वही, था जो उसने कहा
जमाने को तुलसी भी मिलता नया!
उसे कहते-कहते हँसी आ गयी
मुझे प्यार से देख शरमा गयी
कहा मैंने, हाथों में ले उसका हाथ–
‘बँधी जान तो मेरी तेरे ही साथ
तुझे छोड़ लूँ वन-पहाड़ों की राह
मुझे यों न तुलसी भी बनने की चाह
बहुत अपनी बीबी है प्यारी मुझे
जिसे छोड़ आया हूँ पाने तुझे
नहीं त्याग है यह किसीसे भी कम
रहेंगे मगर मिलके अब साथ हम
‘यहाँ मुझपे तेरा भी कम हक़ नहीं
पुरानी ये पहचान है, शक नहीं
जो बहता है रग-रग में मेरे लहू,
हरेक बूँद में उसकी है तू ही तू
कोई चीर देखे जो सीना मेरा
दिखेगा वहाँ पर भी चेहरा तेरा
अगर प्यार सच्चा है इंसान से
तो वह जुड़ ही जाता है भगवान से
झलक उस तरफ़ की दिखा देगा वह
मुझे घर में तुलसी बना देगा वह’
मेरी बात सुनकर उठी वह सिहर
गयी एक चमक जैसे आँखों में भर
मगर दूसरे पल ही कुम्हला गयी
वही मुँह पे फिर बेबसी छा गयी
कहा–‘मैं तुम्हारी ही हूँ हर तरह
नहीं दूसरे की है दिल में जगह
बदल जायँ दुनिया में चाहे सभी
तुम्हें भूल सकती नहीं मैं कभी
मगर सौत आटे की भी है बुरी
चुभेगी ही सोने की भी हो छुरी
मेरा दिल तो है हर तरफ पाक-साफ़
कोई किस तरह इसको कर देगी माफ़!’
कहा मैंने–‘कर तू न इसका ख़याल
है यह अब मेरी ज़िंदगी का सवाल
है जिसकी वजह से ये उलझन तुझे
नहीं देख सकती दुखी वह मुझे
गले से लगाने को हरदम खड़ी
बहन ही उसे तू समझ ले बड़ी!
कहा उसने रुककर कि ‘तुमने अभी
कहा जो भी, मैं मान भी लूँ सभी
मगर एक कीड़ा है जिस फूल में
सनी जिसकी हर पंखड़ी धूल में
उसे देवता पर चढ़ा कैसे दूँ!
मैं औक़ात अपनी भुला कैसे दूँ!
तुम्हें प्यार के खेल आसान हैं
बहुत दिल लगाने के सामान हैं
लुटी मैं तो पर एक ही दाँव पर
चढ़ो तुम न काग़ज़ की इस नाव पर
भलाई इसीमें, भुलाओ मुझे
नज़र फेर लो, छोड़ जाओ मुझे
दो आँसू फ़क़त प्यार के नाम पर
बहा लेना, मैं याद आऊँ अगर’
सवाल और भी बेबसी के कई
लगा जैसे उसकी नज़र कह गयी
नहीं सूझता था मुझे, ‘क्या कहाँ
मनाता था–‘ऐसे ही हरदम रहूँ
निगाहों से ओझल कभी फिर न हो
बड़ी मुश्किलों से मिली आज जो
ठहर जाय बाँहों में ही रात यह
न हो ख़त्म उससे मुलाक़ात यह’
कहा मैंने–‘अब होके तुझसे अलग
न मैं जी सकूँगा, इसे ले समझ
रहूँ मैं जहाँ पर भी, तू होगी साथ
मेरा जीना-मरना है अब तेरे हाथ
नहीं बात दुनिया में है यह नयी
हुए लोग पहले भी मुझ-से कई
‘किसीका नहीं जोर दिल पर चला
ठहरता है आँधी में तिनका, भला!
पुराना हो फ़रहाद, मजनूँ का हाल
अभी अष्ठ एडवर्ड की है मिसाल
गया छोड़ जो सारी दुनिया का राज
नहीं भाये सिंप्सन बिना तख़्तोताज
“भले ही न दुनिया में ज़ाहिर ये ग़म
नहीं प्यार मेरा किसीसे भी कम
मिले जो तेरे प्यार की भी निगाह
बनूँ मैं भी दम भर में शाहों का शाह
नया ताज बनवा न पाऊँ अगर
मिला जो मुझे शायरी का हुनर
उठा एक उससे महल आलीशान
मैं मुर्दों में भी डाल सकता हूँ जान
न होंगे मेरे ताज में बस मज़ार
क़यामत का करते हुए इंतज़ार
वहाँ दिल भी धड़केंगे सीनों में दो
करेंगे सदा प्यार से बात जो
“निकल हम वहाँ चाँदनी रात में
फिरेंगे सदा हाथ ले हाथ में
सितारों की झालर लगी सेज में
सुलायेंगी आ-आके परियाँ हमें
सुबह चाँद को तेरे जूड़े में टाँग
वे मोती की लड़ियों से भर देंगी माँग
“दहकते हुए होंठ के ये गुलाब
ये मोती के पानी-सा चेहरे का आब
लजाती हुई प्यार की यह नज़र
झुकी जा रही जो मुझे देखकर
‘रहेंगी सदा ये अदायें जवान
वहाँ हुस्न की घट न पायेगी शान
भले ही रहे तू निगाहों से दूर
रगों में से पत्थर की झलकेगा नूर
“वहाँ फिर से अपना न होगा बिछोह
नहीं कोई दुनिया में पायेगा टोह
हज़ारों बरस भी गुज़रने के बाद
रहेगा मेरा प्यार यह सब को याद’
हुई पुतलियाँ उसकी सुनते ही नम
कहा ‘प्यार दिल में न मेरे भी कम
लगा था मुझे भी न जब तक ये रोग
समझती थी, बातें बनाते हैं लोग
पड़ा अपने जी पर, खुला यह तभी
कि लगती है प्यारी कभी मौत भी
“नहीं पर है आसान वह ज़िंदगी
हज़ारों की जिस पर नज़र हो लगी
उठेंगे जो मेरी वजह से सवाल
धड़कता है दिल उनका करके ख़याल
चलूँ मैं वहाँ तो मेरे वास्ते
अलग घर के होंगे अलग रास्ते
मगर छेद होते हैं दीवार में
बहुत लोग होते हैं परिवार में
उठायेंगे तुम पर उँगलियाँ सभी
न देंगे तुम्हें चैन लेने कभी
‘मैं डरती हूँ उस भीड़ से होके गुम
कहीं बाद में, फेर लो मुँह न तुम
कली से जो भौंरा रचाता है रास
नहीं दूसरे दिन फटकता है पास
नयी बात क्यान! मर्द ऐसे सभी
रँगे श्याम राधा के रँग में कभी
मगर क्याा दिया फल उसे प्यार का!
बिलखती गये छोड़कर द्वारका
कहो कुछ भी, है प्यार बालू की लीक
मिटा दें न लहरें, तभी तक है ठीक
टिकी तेज आँधी में जो वक्त की
दिये की कहाँ ऐसी लौ मिल सकी!
ये वादे जो हैं आज तुमने किये
नहीं क्याो हैं बस चार दिन के लिए!’
कहा मैंने–‘जो भी है मेरा तमाम
अभी कल ही करता हूँ मैं तेरे नाम
भरोसा तुझे किस तरह और दूँ
सिवा इसके, यह जान ज़ामिन करूँ!
मैं घरबार सब से ही लूँ आँख मूँद
कहे तू, अभी जाऊँ जमना में कूद!
नहीं और भी कर सकी ज़प्त वह
कहा–‘ तुमसे हारी हूँ मैं हर तरह
कभी मुँह पे लाना न फिर ऐसी बात
है बदनाम पहले ही औरत की जात
मुझे कुछ न है माल-दौलत की चाह
मैं कर लूँगी दो रोटियों पर निबाह
न तुमसे कभी हो बिछड़ने का जोग
मरूँ तो उठाने को हों चार लोग
न इसके सिवा कुछ कभी चाहिए
मुझे बस तुम्हारा खुशी चाहिए
“जियो तुम, रहे दिल सदा यह जवान
रहूँगी लिये मैं हथेली पे जान
‘जो मरना ही होगा तो मर लूँगी मैं
तुम्हें उम्र अपनी भी दे दूँगी मैं
करोगे भी क्याम याद तुम भी कभी
कहीं कोई थी ऐसी जाँबाज़ भी
न था जिसको तिल-भर भी मरने का डर
लुटा जो गयी ज़िंदगी प्यार पर
हुई तुम पे ऐसी जो क़ुरबान थी
कि हँसती हुई दे गयी जान भी!’
रुकी बोलकर वह गया रुँध गला
कहा– अपने दिल का कहूँ हाल क्या !
अँधेरे में सुन पाँव की आहटें
बदलती थी जग-जगके मैं करवरटें
किसी भी तरह रात कटती न थी
ये सूरत ख़यालों में हटती न थी!
मुड़ी लाज से वह निगाहें झुका
कोई लफ़्ज़ होठों पे था ज्यों रुका
हुए दोनों आँखों के डोरे थे लाल
लटें चूम लेती थीं उड़-उड़के गाल
उठे ज्यों ही अँगड़ाई लेने को हाथ
गिरे, मिलके आपस में, नज़रों के साथ
हवा आयी फूलों की ख़ुशबू लिये
किसीने कसे तार ज्यों छू दिये
कहा उसने, ‘लो रात आधी गयी
छिपा चाँद धरती को कर सुरमई
हुए नींद में पेड़-पौधे भी सब
चलो, हम भी सपनों में खो जायेँ अब
कटे आज तो प्यार से एक रात
हम आगे की सोचेंगे कल कोई बात’
मगर कोई कैसे ले आँखों को मींच
चमकता हो जब चाँद बाँहों के बीच!
भले ही था सोया हुआ कुल जहान
तड़पती थीं दिल में उमंगें जवान
तमन्ना यें थीं इस क़दर बेक़रार
कि हरदम अधूरा ही था मेरा प्यार
नहीं ख़त्म होती थी दिल की तलाश
न पीकर भी बुझती थी होंठों की प्यास
चुभी थी रगों में शहद की छुरी
हरेक साँस में थी छिड़ी बाँसुरी
नहीं दीन-दुनिया का कुछ होश था
धड़ककर हुआ दिल भी ख़ामोश था
x x
दिखी ज्यों ही पहली किरन भोर की
कहीं दूर मुर्गे ने आवाज़ दी
कड़ा करके जी, खींचकर ठंडी साँस
उठा मैं तो बोली, वो आ मेरे पास
‘न सोचो, अलग तुमसे मैं हूँ कभी
महज कुछ दिनों है तड़पना अभी
तुम्हें खोज लेनी है ऐसी जगह
रहे हम जहाँ मिलके अपनी तरह
‘जगा तो दिया तुमने फिर सोया प्यार
न रह जाऊँ करते ही मैं इंतज़ार
उमीदों कौ लौ जो जलाकर चले
न बुझ जाय आँखों के आँसू तले
“भले ही यहाँ जब मिले थे न हम
नहीं थीं ये आहें, नहीं थे ये ग़म
लगा रोग पर अब तो यह जी के साथ
मेरी लाज अब है तुम्हारे ही हाथ
तुम्हें मैंने तो दिल में है रख लिया
कहाँ मुझको रखते हो, देखूँ, पिया!
न दम लूँगी जब तक न आये जवाब
मैं हर दिन का गिन-गिनके लूँगी हिसाब
‘मिटे हों जो बन-बनके सपने कई
उन्हींमें न रखना मुझे, निर्दई!
कहीं बैठ जाना न लिखने किताब
सुना, शायरों की है आदत ख़राब
वे जीते हैं दुहरी यहाँ ज़िंदगी
कहीं दिल, नज़र है कहीं पर लगी
अलग उनके दिन हैं, अलग उनकी रात
निराली है दुनिया से हर उनकी बात
भले ही वे करते हैं सबसे निबाह
नहीं कुछ भी अन्दर की मिलती है थाह
‘मुझे डर है, लफ़्ज़ों के साँचें में ढल
न रह जाऊँ बनकर तुम्हारी ग़ज़ल
फिरूँ मैं न राधा-सी रटते ही नाम
कछारों में जमना की ही, मेरे श्याम!’
लिये हैं जो होंठों के चुंबन मेरे
उन्हें भूल जाना न, साजन मेरे!
उदासीभरी देखती मेरी ओर
लपेटे उँगलियों में आँचल का छोर
तभी जैसे सोते से हो वह जगी
झुकी, पाँव छूकर, सिसकने लगी
भले ही थी दिल में बिछड़ने की पीर
नहीं फिर भी पहले-सा मैं था अधीर
रहा देर तक यों तो पकड़े किवाड़
हुआ देहली लाँघना भी पहाड़
मगर जब पहुँच राह के मोड़ पर
बिदा ली झुकाये ही उसने नज़र
मेरा दिल धड़कने लगा इस तरह
कि थी जैसे बस आख़िरी भेंट वह
कसकता था सीने में ज्यों कोई तीर
दिया था किसी ने कलेजा ही चीर
मुझे देख फिर-फिर पलटते हुए
नज़र अपने रुख़ से न हटते हुए
कहा उसने आँचल से आँखों को पोंछ
‘मुझे खा रहा है तुम्हारा ही सोच
तुम्हीं मर्द होकर करो इस तरह
तो फिर कैसे झेलूँगी मैं दर्द यह!
नहीं कोई होता है ऐसे उदास
हमेशा ही जब हमको रहना है पास
भले ही बिछड़ती हूँ अब राह में
अलग कोई कल कर सकेगा हमें!
जहाँ दो दिलों का है सच्चा क़रार
वहाँ मौत भी मान जाती है हार!
उठा मुँह को, आँसूभरी एकटक
मुझे देखती जो रही दूर तक
अदा उसकी वह दिल से जाती नहीं
खड़ी जैसे दिखती है अब भी वहीं