rajrajeshwar ashok

प्रथम अंक
प्रथम दृश्य

(मगध का राजउपवन। अशोक चिंतित बैठे हैं। राधागुप्त का प्रवेश)

राधागुप्त – आज किस चिंता में निमग्न हो, कुमार!
अशोक – राधागुप्त! जीवन एक छलनामयी मरीचिका ही तो है। काल की असीमता में क्षण-क्षण बनते-मिटते रंगों का इन्द्रजाल। मुट्ठी भींचने पर जल का जितना भाग बचा रह जाता है,
आँखें खोलने पर उतना भी तो जीवन शेष नहीं मिलता। ठीक ही कहा है,
‘वैराग्यमेवाभयम्’
राधागुप्त – कुमार! तुम तो पहेलियाँ बुझा रहे हो। मैं नहीं समझता एकाएक तुम संन्यास की बात कैसे सोचने लगे। कहाँ तो वह विश्व-साम्राज्य का मनमोहक स्वप्न, और कहाँ ये वैराग्य की
बातें!
अशोक – भाग्य का परिहास, नियति की क्रूरता, स्वप्न तो फिर स्वप्न ही होते हैं न !
राधागुप्त – क्या सुसीम की अवज्ञा से तुम्हें आघात पहुँचा है? मैंने सदा ही उसके व्यवहार में तुम्हारे प्रति अवज्ञा का भाव पाया है। आज तुम्हारी उदासी देखकर मेरा जी भी उदास हो रहा है।
(निकट आकर अशोक के कंधे पर हाथ रख देता है)
अशोक – (चौंककर) हाँ, हाँ, वहीं, वहीं, मुझसे दूर ही रहो।
राधागुप्त – नहीं, मैं तुम्हारे इस विचित्र व्यवहार का कारण जानकर ही रहूँगा।
अशोक – मुझे कुष्ट-रोग है।
राधागुप्त – कुष्ट-रोग! किस दुष्ट ने कहा है? अच्छा परिहास है!
अशोक – परिहास नहीं राधागुप्त ! अभी राजवैद्य ने मंत्रि-परिषद के.बीच पिताजी को यह बात बतायी है।
राधागुप्त – महाराज ने मान लिया ?
अशोक – पिताजी, क्या कहते? वे तो धर्ममूर्ति हैं। विचार तो मुझे करना है। देखते नहीं, मेरा शरीर कैसा हो रहा है! इन सब व्रण-चिन्हों के होते हुये राज्यवैद्य की बातों का कौन प्रतिवाद
कर सकता था! पिताजी के हृदय में राजवैद्य का बहुत बड़ा स्थान है।
राधागुप्त – राजवैद्य का या राजमहिषी का! मैं यह सारा कुचक्र अच्छी तरह समझ रहा हूँ। तुम्हें और कुष्ट-रोग? देखो, अशोक! अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने की यह शकरानी की कोई
नयी चाल है। मुझे तो संदेह है कि तुम्हें धोखे से पारद-भस्म खिलाया गया है। मैं स्वयं सुप्रसिद्ध वैद्य भिषग्सेन से इसके संबंध में परामर्श करूँगा। उनके पास अवश्य इस कुप्रभाव
को नष्ट करने की कोई औषधि होगी। तुम्हारे शरीर में इन चिह्नों का लेश भी नहीं रहेगा। न जाने महाराज को क्या हो गया है कि उचित-अनुचित सब भुलाकर नयी रानी के संकेत
पर नाच रहे हैं।
अशोक – चुप, चुप, पिता के प्रति ऐसे वचन सुनना भी पाप है।
(सहसा प्रतिहार का प्रवेश। अशोक का अभिवादन करता है)
प्रतिहार – कुमार! सम्राट्‌ ने आपके लिए यह आदेशपत्र भेजा है।
(अशोक आदेशपत्र हाथ में लेकर पढ़ता है)
अशोक – मंत्रि-परिषद्‌ कुष्ट रोगी होने के कारण कुमार अशोक को राजगद्दी के उत्तराधिकार से वंचित करती है और आदेश देती है कि वे आज ही पाटलिपुत्र छोड़ दें (राधागुप्त की
ओर मुड़ते हुए)। राधागुप्त ! राधागुप्त! मेरा-खड्ग बाहर निकलने को मचल रहा है।
राधागुप्त – यह तो पितृभक्ति का प्रथम पुरस्कार है।
अशोक – पाटलीपुत्र छोड़ दूँ! अपनी जन्मभूमि छोड़ दूँ! मगध का जन्मसिद्ध उत्तराधिकार छोड़ दूँ! पिताजी! यह आपका आदेश है! क्याख सुप्त मृगगाज की जटाओं को झकझोरकर उसे वनराज्य से बाहर निकल जाने का आदेश दिया जा सकता है! नहीं, नहीं, ऐसा कदापि नहीं होगा। मगध का राज्य तो मेरी भुजाओं की तलहथी में है, मैं चाहूँ तो समस्त आर्यावर्त को उलट दे सकता हूँ। राधागुप्त, क्या मैं इस विशाल आर्य-साम्राज्य के संस्थापक महाराज चन्द्रगुप्त का पौत्र नहीं! क्या मेरी धमनियों में उसी महापुरुष का रक्तल-प्रवाह नहीं जिसने यवनों की विश्व-विजयिनी सेना के छक्के छुड़ा दिये थे और आसेतु हिमाचल इस महानू राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध किया था! (ठहरकर) रक्त! दूषित रक्त! कुष्ट का रक्त! जिसका राज्याभिषेक नहीं किया जा सकता! नहीं,
नहीं, मैं पाटलिपुत्र छोड़ दूँगा, साम्राज्य छोड़ दूँगा, वृक्षों के कंदमूल खाकर किसी अरण्य में पड़ा रहूँगा जहाँ मनुष्यों की छाया भी मुझ पर न पड़ सके। (जाता है)
राधागुप्त – कुमार! कुमार!

(महाबलाधिकृत का सैनिकों के साथ प्रवेश)
महाबलाधिकृत – कुमार अशोक कहाँ हैं?
राधागुप्त – क्या आपको दिखाई नहीं देता कि वे यहाँ नहीं हैं।
महाबलाधिकृत – सो तो देख रहा हूँ। सैनिको! पकड़ लो इन््हेंर।
राधागुप्त – (तलवार निकालकर) इतनी सरलता से नहीं।
महाबलाधिकृत – (सैनिकों से) मुर्खों! मेरा मुँह क्या देखते हो! आज्ञा का पालन करो।
(सैनिक आगे बढ़कर वार करते हैं। राधागुप्त रोकता है)
(सहसा महामात्य का प्रवेश)
महामात्य- यह अकाल-जलदों-सी शस्त्र-ध्वनि कैसी?
राधागुप्त – महामात्य! ये अकारण मुझे वंदी बनाना चाहते हैं।
महाबलाधिकृत- मैं महारानी की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।
महामात्य- महारानी की आज्ञा पहले मेरे पास आनी चाहिए। हमने सम्राट्‌ विंदुसार के प्रति राजभक्ति की शपथ ली है, महारानी के प्रति नहीं। इनका अपराध?
महाबलाधिकृत- वह तो मैं नहीं जानता, महामात्य !
महामात्य- क्या तुम्हें यह भी ज्ञात नहीं कि अपराध बताये बिना मगध के किसी भी नागरिक की स्वतंत्रता का अपहरण नहीं किया जा सकता! राधागुप्त तो मंत्रि-परिषद्‌ के सदस्य हैं। उन्हें वंदी बनाने के लिय सम्राट्‌ की विशेष आज्ञा चाहिए।
महाबलाधिकृत- (संकुचित-सा) क्षमा करें महामात्य! आज्ञा-पालन की आतुरता में यह भूल हो गयी।
महामात्य- जाइए महाबलाधिकृत, भंविष्य में ऐसी भूल न कीजिएगा।
(महाबलाधिकृत सैनिकों के साथ जाता है)

राधागुप्त – महामात्य! महामात्य! कुमार अशोक को बचाइए, यह सब शकरानी का षड़यंत्र है। कुमार सर्वथा नीरोग हैं। उन पर किसी विषमय औषधि का प्रयोग किया गया है।
महामात्य- मुझे खेद है, राधागुप्त! मैं विवश हूँ।
राधागुप्त – क्या मगध पर विदेशियों का आधिपत्य हो जाने देंगे, महामात्य! शकजननी से उत्पन्न सुसीम आर्यावर्त का सप्राट्‌ बनेगा?
महामात्य – राजा की न कोई जाति होती है न कोई कुल। वह सर्वभक्षी पावक और सर्वहितकारी समीरण के समान किसीका नहीं और सब का है।
राधागुप्त – परंतु सुसीम की उद्दंडता ने आपको भी तो नहीं छोड़ा था महामात्य! याद है, तक्षशिला के युद्ध का आपके द्वारा विरोध किये जाने पर आपकी ओर अपना हस्तावाय फेंककर
उसने क्याक कहा था! “मगध के महामात्य! भय लगता हो तो इसे पहनकर तलवार हाथ में लें! ।
महामात्य – वह अपमान भी भूलने की बात है! परन्तु व्यक्तिगत रागद्वेष से राजनीति नहीं चलती, राधागुप्त! राजा व्यक्ति नहीं, संस्था होता है।
राधागुप्त – परन्तु क्या आत्म-सम्मान और स्वाभिमान को तिलांजलि देकर, न्याय और अन्याय का विचार छोड़कर, राज्य की सेवा हो सकती है, महामात्य! योग्य पुत्र. के रहते दुराचारी का
राज-तिलक हो, वह भी एक विदेशी रानी के षड़्यंत्र से, क्या यह अन्याय नहीं?
महामात्य – इस अन्याय का विचार सम्राट्‌ विंदुसार को करना है, मुझे नहीं। फिर भी मैं सोचूगा।
राधागुप्त – सोचिए, ठीक से सोचिए, महामात्य! अभी समय है। सम्राट्‌ तो बुढ़ापे में उचित-अनुचित का विचार भी खो बैठे हैं।
महामात्य – राधागुप्त! धीरज से काम लो। समय से पूर्व अपने मनोभावों को प्रकट करने से न तो कार्य की सिद्धि होती है, न अपनी भलाई। शीघ्र अशोक के साथ कहीं दूर चले जाओ | तुम दोनों के प्राणों पर संकट है। अभी मैं इतना ही कहूँगा। समय आने पर तुम देखोगे कि महामात्य क्या सोचते हैं।
(प्रस्थान)

(महाराज विंदुसार का शकरानी के साथ प्रवेश)
विंदुसार – मनुष्य का हृदय भी कितना दुर्बल है! एक इच्छा की पूर्ति होते न होते, रक्तबीज के समान उसके स्थान पर सैकड़ों असफल इच्छाएँ आ खड़ी होती हैं। प्रत्येक बार मनुष्य सोचता है “बस यही अंतिम है? परंतु अंत कहाँ!
शकरानी – इच्छा का अंत तो मृत्यु है, महाराज!
विंदुसार – नहीं रानी, मृत्यु में भी इच्छाओं का अंत नहीं है अन्यथा आत्मा का पुनर्जन्म ही क्योंस होता? ओह! सोचता था अशोक का राज्याभिषेक देखकर अरण्य के किसी एकांत में जा बैठूँगा और वहाँ पक्षियों के कलरव में आत्मा की शांति ढूँढने का प्रयत्न करूँगा, पर तुमने फिर एक मायाजाल में उलझा दिया, महारानी!
शकरानी – आपको, अपने किये हुए निर्णय पर इस प्रकार सोच-विचार करना शोभा नहीं देता, महाराज! फिर राज्यमंत्री और राजगुरु की सम्मति से ही तो सारा निर्णय कियां गया है। भला ऐसा भी कोई निर्णय होता है जिससे सभी प्रसन्न हों। और फिर सुसीम भी तो आपका पुत्र है।

(सहसा प्रतिहार का प्रवेश)
प्रतिहार – महाबलाधिकृत महाराज से मिलना चाहते हैं।
महारानी – उन्हें आने को कहो।
महाबलाधिकृत- सम्राट्‌ की जय हो। महाराज के आदेशानुसार मैं कुमार अशोक और राधागुप्त को वंदी बनाने गया था परन्तु कुमार तो पहले ही पाटलिपुत्र छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये और
राधागुप्त को…।
शकरानी – हाँ-हाँ, बोलो, राधागुप्त को क्या हुआ?
महाबलाधिकृत- उन्हें महामात्य ने छुड़ा दिया।
शकरानी- महामात्य ने छुड़ा दिया? सम्राट्‌! आप देखते हैं न, महामात्य किस प्रकार आपकी आज्ञाओं की अवहेलना करते हैं।
विंदुसार – परंतु मैंने तो ऐसी कोई आज्ञा नहीं दी थी, महाबलाधिकृत! कुमार अशोक को क्योंब वंदी बनाना चाहते थे? राधागुप्त का क्या अपराध था?

महाबलाधिकृत- यह सब तो मैं नहीं जानता, महाराज! महारानी की आज्ञा थी।
विंदुसार – महारानी! यह क्यार गोरखधंधा है?
शकरानी – सुसीम के उत्तराधिकार की बात क्या अशोक चुपचाप सहन कर लेंगे, महाराज? विद्रोह करने के पूर्व विद्रोही को उसके साथियों के साथ पकड़ लेना तो सामान्य राजनीति है। क्योंो
महाबलाधिकृत! प्रजा में तो सम्राट्‌ के निर्णय से अपार हर्ष है न?
महाबलाधिकृत- सो तो है, महारानी! परन्तु सेना के कुछ अधिकारियों में कुछ असंतोष है। यदि किसी युक््ति से उन्हें यह परितोष हो जाता कि कुमार अशोक वास्तव में साम्राज्य के अयोग्य हैं
तथा प्रजाजनों की भलाई के लिए ही उन्हें यहाँ से हटा दिया गया है तो बहुत अच्छा होता।
शकरानी – यह क्या कठिन है। इसी आशय की विज्ञप्ति सम्राट्‌ की ओर से स्पष्टीकरण के रूप में प्रकाशित कर दी जाय।
महाबलाधिकृत – राज्य की विज्ञप्ति से प्रजा का हृदय-परिवर्तन नहीं होता, महारानी!
विंदुसार – अभी तो स्वयं राजा का ही हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ है।

(प्रतिहार का प्रवेश)
प्रतिहार – सम्राट्‌ की जय हो। उज्जयिनी से एक ज्योतिषी सम्राट्‌ के दर्शनों के लिए आये हैं। वे अपने राजा का कुछ संदेश भी लाये हैं।
विंदुसार – उपस्थित करो।
(प्रतिहार जाता है और ज्योतिषी के साथ आता है)
ज्योतिषी – (अभिवादन करके) महाराज, मैं उज्जयिनी का राज-ज्योतिषी हूँ। उज्जयिनी के सम्राट्‌ ने श्रीमान की सेवा में यह संदेश भेजा है।
विंदुसार – (पत्र पढ़कर) अवंति-नरेश लिखते हैं कि कुमार अशोक अपने उज्जयिनी-प्रवास के समय उनकी पुत्री आर्या महादेवी से वैदिक पद्धति से विवाह-सूत्र में आबद्ध हो चुके हैं। वे
इसकी घोषणा करने तथा देवी को मगध भेजने के लिये मेरी अनुमति चाहते हैं। उन्हें क्या पता कि कुमार अशोक निर्वासित हो चुके हैं।
ज्योतिषी- निर्वासित? कुमार अशोक निर्वासित?
शकरानी- देखा, महाराज ! अशोक ने विवाह कर लिया और हमें सूचना भी नहीं। ज्योतिषीजी! आपने उज्जयिनी से शुभ मुहूर्त देखकर प्रस्थान नहीं किया था, ऐसा जान पड़ता है।
ज्योतिषी– (खड़ा होकर) मेरा ज्योतिष-विचार कभी असत्य नहीं होता, महारानी! अशोक आर्यावर्त क्रे दिग्विजयी सम्राट्‌ बनेंगे और उनकी तथा सौभाग्यवती महादेवी की संतान देश-देशांतर में चिर-काल तक पूजित होगी।
(सुसीम का प्रवेश)
सुसीम – यह अनर्गल प्रलाप करनेवाला ब्राह्मण कौन है?
महाबलाधिकृत– यह उज्जयिनी के राजज्योतिषी हैं, कुमार!
सुसीम – ज्योतिषीराज! तुम्हें दूसरों की भविष्यवाणी करने के पूर्व अपने भविष्य का तो विचार कर लेना चाहिये था। राजा के सम्मुख मिथ्याभाषण का दंड मृत्यु है।
ज्योतिषी – उज्जयिनी के राजज्योतिषी की भविष्यवाणी को मिथ्याभाषण कहनेवाले, उद्दंड राजकुमार! वह देख, क्षितिज की रक्तिम मेघमाला कराल कालचक्र का संकेत दे रही है। अष्ट ग्रहों का एक स्थान पर एकत्र होना, आनेवाले विस्फोट की सूचना है। मुकुट-मंडित राजपुत्रों के शिर पक्वा विल्वफलों के समान धूलि-धूसरित होंगे….।
सुसीम – बस, बस, प्रलापी ब्राह्मण, महाबलाधिकृत, इसे शीघ्र नगर की सीमा से बाहर निकाल दो।
शकरानी – (सुसीम से) ये उज्जयिनी के राजज्योतिषी है, कुमार! ज्योतिषीजी उज्जयिनी की राजकुमारी से अशोक के विवाह-संबंध की सूचना लाये हैं। राजकुमारी यहाँ आना चाहती है।
सुसीम – अच्छा, तभी अशोक को चक्रवर्ती सम्राट्‌ बनाने की भविष्यवाणी की जा रही है। ज्योतिषी! इस बार तुम्हें क्षमा किया जाता है। अपने महाराज से कह दो कि अशोक तो निर्वासित हो चुके हैं परन्तु युवराज सुसीम महादेवी का मगध के राजभवन में अपनी अंकशायिनी के रूप में.स्वागत करने को प्रस्तुत हैं।
विंदुसार – कुमार! महादेवी युवराज अशोक की विवाहिता स्त्री हैं।
सुसीम – कुष्टरोगी अशोक के साथ महादेवी का विवाह कब हुआ, यह किसीको पता नहीं । यदि यह सत्य भी हो तो शास्त्रानुसार अवैध ठहराया जा सकता है। ज्योतिषीराज, यदि महादेवी चाहें तो मगध के निन्न्याेनबे राजकुमारों में सें किसी भी एककी या एक से अधिक की पटरानी बन सकती हैं।
ज्योतिषी – नाश! महानाश! यह तू नहीं, तेरे सभी भाइयों का काल बोल रहा है। एक द्रौपदी के कारण जैसे महाभारत में कभी कौरवों का विनाश हुआ था वैसे ही महादेवी की अपमान ज्वाला में समस्त आर्यावर्त का ध्वंश होगा। मैं स्पष्ट देख रहा हूँ, मैं स्पष्ट देख रहा हूँ।
विंदुसार – क्षमा करें, ज्योतिषीराज! यह स्वभाव से ही उदूदंड है। सुसीम, अपनी भ्रातृवधू के लिए आर्यावर्त्त के होनेवाले सम्राट्‌ के मुँह से ऐसे अपशब्द शोभा नहीं देते।
(सुसीम पाँव पटकता हुआ चला जाता है)
(महाबलाधिकृत से) जाओ, ज्योतिषीजी के आवास और सुविधा की सम्यक्‌ व्यवस्था करो। (ज्योतिषी से) महाराज, क्षमा करें। मेरे बच्चों की ग्रहशांति के लिये कुछ प्रयत्न करें।
(महाबलाधिकृत के साथ ज्योतिषी का प्रस्थान)
(महारानी से) मुझे तो ज्योतिषी की वाणी सुनकर अभी से डर लग रहा है। ‘मुकुट-मंडित राजपुत्रों के मस्तक धूल में लोटेंगे’, ईश्वर मेरे बच्चों की रक्षा करें।

शकरानी – स्नेह स्वभाव से भीरु होता है, महाराज! सुसीम का स्नेह अपने भाइयों पर कितना अधिक है! कभी-कभी तो मैं सोचती हूँ जैसे ये सभी सगे भाई हैं। एक अशोक ही कंटक-स्वरूप था सो निकल गया।
विंदुसार – मुझे तो सभी भाइयों में एक ही समानता दिखाई देती, रात-दिन द्यूत-क्रीड़ा और मद्य-पान। दंभ और पाखंड तो सब में जैसे कूट-कूटकर भरा है। इनके हाथों में आर्यावर्त के
इस विशाल मगध-साम्राज्य की क्या अवस्था होगी, यह सोचते ही भय से सिहर उठता हूँ। एक अशोक ही होनहार था परंतु …
शकरानी – छोड़िए, इन बातों को । आप झूठ-मूठ तिल का ताड़ बना देते हैं। यह बताइये, सुसीम के राज्याभिषेक की कौन-सी तिथि निश्चित करते हैं? क्‍यों न इस ज्योतिषी से ही मुहूर्त निकलवा लिया जाय! जितनी शीघ्र इस जंजाल से मुक्ति मिल जाय, उतना ही अच्छा। मैं तो इस राज-काज से ऊब-सी गयी हूँ। जी चाहता है, अरण्य के किसी निभृत निकुंज में, साम्राज्य
की जटिल उलझनों से दूर, महाराज की चरण-सेवा करती हुई चुपचाप पड़ी रहूँ।
विंदुसार – साम्राज्य का त्याग तो तुम्हें ही करना है, महारानी! मैं तो कभी का तुम्हारे कर के कादंबपात्र में सारी चिताएँ डूबो चुका हूँ।
शकरानी – महाराज की बात! अच्छा तो शीघ्र ही मंत्रि-परिषद्‌ की बैठक बुलाकर राज्याभिषेक की तिथि घोषित कर दी जाय॥
(प्रतिहार का प्रवेश)
महामात्य सम्राट्‌ से मिलना चाहते हैं।
विंदुसार – आने दो।
(महामात्य का प्रवेश)
महामात्य – सम्राट्‌ की जय हो। तक्षशिला से एक दूत आया है। वहाँ भीषण विद्रोह उठ खड़ा हुआ है। सहायता भेजनी अत्यावश्यक है।
विंदुसार – युवराज सुसीम कहाँ है? क्योंष न उसे तक्षशिला भेज दिया जाय।
शकरानी – इस समय सुसीम को राजधानी के बाहर भेजना उचित नहीं। मेरी मानें तो कुमार अशोक को बुलाकर ततक्षशिला भेज दें।
विंदुसार – कुमार अशोक कहाँ मिलेगा, महारानी! और फिर इतने अपमान के बाद वह लौट कर क्यों आने लगा!
शकरानी – इसका भार मुझ पर छोड़ दें, महाराज! देशभक्ति और सैनिक-विजय के यश के लोभ से अशोक तुरत तैयार हो जायगा। महामात्य! अशोक से संपर्क स्थापित करें और सेना की एक टुकड़ी के साथ उसे तक्षशिला भेजने का प्रबंध करें ।
महामात्य – किंतु महारानी …।
शकरानी – मैं किंतु-परंतु सुनने की आदी नहीं, महामात्य ! कार्यपूर्ति की सूचना-भर चाहती हूँ।
महामात्य – जैसी महारानी की आज्ञा!
(जाता है)
शकरानी – आइए महाराज, भवन में चलें। ओस गिरने लगी है।
(प्रस्थान)