rajrajeshwar ashok

तृतीय अंकः द्वितीय दृश्य

(मगध का राज-उपवन। चंडगिरि अपने निजी अंगरक्षक के साथ टहल रहा है)

चंडगिरि – आठ वर्ष बीत गये। एक-एक वर्ष मेरे अपमान की रस्सी में एक-एक गाँठ बनकर रह गया परंतु मेरा प्रतिशोध का प्रण पूरा नहीं हुआ।। सहसों बौद्ध-भिक्षुओं के मस्तक छिन्‍न कर
डाले, कितने ही लोक-प्रिय नागरिकों की हत्या कर डाली पर कोई प्रभाव नहीं। अशोक की विजयों के सम्मुख जनता उसके नाम पर किये गये मेरे सारे अत्याचार पल मात्र में भुला देती है। भिक्षु-संघ तो जैसे रूई का पुंज है। कितने भी तलवार के आघात दो, चुपचाप सह लेता है। परंतु आज प्रतिशोध का दिन आ गया है। अशोक ने सुसीम की हत्या करके जो दुःख मुझे दिया था वही दुख मैं वीतशोक की हत्या करके उसे दूँगा। (जोर से, अंग-रक्षक से) सैनिकों से कहो, नये बौद्ध भिक्षु को उपस्थित करें।

(दो सैनिक वीतशोक को बौद्ध भिक्षु के वेश में लिये हुए आते हैं।)

चंडगिरि – बाँध दो इसे। मूर्ख! मरने के लिए तैयार हो जा।

वीतशोक – मेरा अपराध?

चंडगिरि – बोद्ध भिक्षु होना। इससे आगे सम्राट्‌ अशोक से पूछना।
वीतशोक – मैं पाटलिपुत्र का निवासी हूँ।

चंडगिरि – यह दूसरा अपराध है। यहाँ राजधानी की सीमा में ही तू विद्रोह फैला रहा धा।

वीतशोक – नहीं, नहीं, मैं तो केवल देशांतर-भ्रमण करता हूँ। मैं राजद्रोही नहीं।
चंडगिरि – तू अवश्य राजद्रोही है। तेरा मुँह कह रहा है कि तू राज्य चाहता है।
वीतशोक – मैं? राज्य? हाँ, राज्य चाहता था। एक दिन। एक क्षण के लिए। इसी पाप से वर्षों से संन्यासी बनकर भटक रहा हूँ।
चंडगिरि – तो अब तैयार हो जा! सैनिकों! शीघ्रता करो।
वीतशोक – ठहरो, मुझे मारो मत। मैं सम्राट्‌ का प्यारा भाई वीतशोक हूँ। सम्राट्‌ मुझे वहुत प्यार करते हैं। मेरे भिक्षु वन जाने से वे बहुत दुखी हैं। मुझे लौटा लानेवाले को वहुत वड़ा पुरस्कार देंगे।
चंडगिरि – तभी तो मैं तुझे उनके पास भेजना चाहता हूँ। वे कलिंग गये हैं।
वीतशोक – तो मुझे वहाँ ले चलो।
चंडगिरि – वही तो कर रहा हूँ। परंतु पूरे शरीर को ले चलने में वड़ा कष्ट होगा। केवल सिर उनके पास भिजवाना चाहता हूँ।
वीतशोक – नहीं, मुझे मारो मत। मुझे जीवित ले चलने से तुम्हें वड़ा भारी पुरस्कार मिलेगा।
चंडगिरि – अशोक से मैं जो पुरस्कार चाहता हूँ वह तू नहीं जानता | उठ, देर मत कर।
वीतशोक – क्या कोई उपाय नहीं है?
चंडगिरि – नहीं ।
वीतशोक – ओह! तू नहीं जानता सम्राट्‌ मुझे कितना प्यार करते हैं। भिक्षु वनने पर भी मेरे कुशल-समाचार जानने को सदा व्याकुल रहते हैं। एक बार, दूर सीमा पर जब में रुग्ण हो गया था तो मेरे लिये पाटलिपुत्र से विशेष औषध भेजी गई थी। मुझे किसी भी उच्च अधिकारी अथवा मंत्रिमंडल के सदस्य के पास ले चलो, चंडगिरि! तुम्हारा समाधान हो जायगा। राधागुप्त तो मगध में ही होंगे?

चंडगिरि – नहीं, वह भी कलिंग गये। परंतु मेरा समाधान हो चुका है। सैनिको! जाओ, इसकी आँख बाँधने की पट्टियाँ ले आओ (सैनिक जाते हैं |) मूढ़! मैं सम्राट्‌ अशोक से प्रतिशोध लेने के लिए ही तेरा वध कर रहा हूँ। यदि प्रतिशोध न लेना रहता तो क्‍या पाटलिपुत्र के नगर-रक्षक जैसे साधारण पद पर मैं आठ वर्षों से पड़ा सड़ता रहता जब कि छोटे-छोटे सैनिक भी बड़े-बड़े राज्यों के महाबलाधिकृत बने बैठे हैं!
(सैनिकों का पट्टी के साथ प्रवेश)

वीतशोक – ओह! सब कुछ समाप्त हो गया। अच्छा, चंडगिरि! मेरी पूर्वाश्रम की प्रेयसी रुक्मिणी यहीं पाटलिपुत्र में कहीं रहती है। क्‍या उसे दूँढ़कर मेरा संदेश दे सकोगे? पता नहीं, वह अव जीवित भी है या नहीं। उसे बड़ा दुःख होगा।
चंडगिरि – (हँसता है।) रुक्मिणी ने विवाह कर लिया है, वीतशोक! चिंता न करो। ।

वीतशोक – दुष्ट! (क्रोध में झटके से वेड़ियाँ तोड़ देता है और पास खड़े सैनिक की तलवार खींचकर चंडगिरि के पेट में भोंक देता है) मरना ही है तो तुझे मारकर मरूँगा।

(एक दूसरा सैनिक वीतशोक को मार देता है।)

पहला सैनिक – चलो भाई! नगर-रक्षक की मृत्यु के समाचार के साथ वीतशोक का सिर भी सम्राट्‌ के पास पहुँचाने की व्यवस्था करें जिससे पुरस्कार कोई दूसरा न ले जाय।

(सैनिक वीतशोक और चंडगिरि के शरीर को कपड़ा उढ़ा कर जाते हैं।)