rajrajeshwar ashok

अंक प्रथम : तृतीय दृश्य
(तक्षशिला का रण-क्षेत्र। अशोक और राधागुप्त बैठे हैं।)

अशोक – मेरी समझ में नहीं आता कि सहायक सेना के आने में इतना विलंब क्यों हो रहा है। दिन-दिन हमारी स्थिति अत्यंत विषम होती जा रही है। तक्षशिला को यदि हमारी वास्तविक स्थिति का पता चल गंया तो हम प्राण देकर भी मगध के गौरव की रक्षा नहीं कर पायेंगे।
राधागुप्त – मैंने पुनः स्थिति की गंभीरता की सूचना पाटलिपुत्र भेज दी है, कुमार!
अशोक – मुझे तो इसमें भी कोई राजनीतिक षड़यंत्र दिखाई पड़ता है। कुष्ट का चिह्न तो समाप्त होना ही था परंतु पराजय का चिह्न तो जीवन भर ही नहीं, मरने के बाद भी नहीं मिटता, राधागुप्त! सोचता था, युद्ध-भूमि में मगध की गौरव-पताका फहराकर सम्राट्‌ को दिखा दूँगा कि राज्य हस्तगत करने की सुसीम की कुटिल चालों के बाद भी मेरी देशभक्ति और वीरता में कोई अंतर नहीं आया है, परंतु यहाँ भी वही प्रवंचना दिखाई देती है। क्या शासन की लतिका छल और पाखंड के जल से सिंचित होकर ही हरी-भरी रहती है।
राधागुप्त – ऐसी मनःस्थिति में तक्षशिला के विद्रोह को शमन करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना आपके जैसे वीर पुरुष का ही काम था, कुमार!
अशोक – मैंने तो राज्य की आकांक्षा को ही तिलांजलि दे दी थी, राधागुप्त! चाहता था कहीं शांति से बैठकर जीवन बिताऊँ। परंतु मेरी सहनशीलता का अनुचित लाभ उठाय गया। मेरे मौन को मेरी दुर्बलता और मेरे गांभीर्य को मेरी कायरता का प्रतीक समझा गया। सुसीम नहीं जानता कि क्रुद्ध होने पर अशोक क्या नहीं कर सकता है। वह आकाश में उड़ कर चंद्रमा से उसका अमृत निचोड़कर ला सकता है, पाताल को छेदकर वासुकि नाग से उसकी मणि छीन सकता है।
राधागुप्त – शांत होइए, कुमार, नयी सेना शीघ्र ही आती होगी।
अशोक – शांत रहूँ? राधागुप्त, अन्याय सहने की एक सीमा होती है। पहले कच्चे पारे के रूप में विष खिलाना, फिर कुष्ठ के चिह्न बताकर राज्य से वंचित और निर्वासित कर देना, यह सब क्या मैंने सहन नहीं कर लिया! कहाँ गये वे कुष्ट के चिह्न? औषधि के एक घूँट ने उन्हें प्रातःकालीन ओस के समान विलुप्त कर दिया। परंतु शत्रु के मुँह पर भेज कर पीछे से सहायता का हाथ खींच लेना, यह तो ऐसा विश्वासघात है जिसके लिए क्षमा की बात करना भी कायरता है। एक बार इस चूहेदानी से निकल जाऊँ, फिर मैं सुसीम को उसकी करनी का फल अवश्य चखाऊँगा।

(प्रतिहार का एक व्यक्ति के साथ प्रवेश)
व्यक्ति – कुमार, यह व्यक्ति संदिग्ध अवस्था में सेनाधिप राधागुप्त के शिविर के पास पाया गया है।

राधागुप्त – मेरे शिविर के पास ? कौन हो जी तुम? मुझसे क्या काम है?
व्यक्ति – (चुप रहता है)
अशोक – मुझे तुम्हारा मुँह खुलवाने की युक्ति आती है पर मैं उस युक्ति से काम लेना नहीं चाहता। सैनिको! इसकी जाँच करो, कोई गुप्तचर तो नहीं है?
व्यक्ति – मैं सेनापति के लिए सम्राट्‌ का विशेष संदेश लेकर मगध से आया हूँ।
अशोक – (पत्र लेकर) तक्षशिला युद्ध का सर्वोच्च अधिकारी मैं हूँ। (पढ़ते हुये) मैं मगध जीता-जागता न लौट सकूँ, इसका प्रबंध किया जा रहा है। सेनापति मुझसे भूल हुई, यह पत्र तुम्हारे लिए ही है।
राधागुप्त – मेरे लिए, कुमार!
अशोक – हाँ, सेनापति! (खड़ा होकर) मैं इस समय कुमार अशोक नहीं, मगध का युवराज नहीं, सम्राट्‌ विंदुसार का पुत्र नहीं, तुम्हारा एक साधारण वंदी हूँ। (पत्र देकर) लो, इसे पढ़ो, यह, पत्र और यह मस्तक दोनों तुम्हारे संमुख प्रस्तुत हैं।
राधागुप्त – (पत्र लेकर पढ़ते हुए) पत्र पढ़ते ही राजद्रोह के अपराध में कुमार अशोक का शिरोच्छेद कर भेज दिया जाय । (पत्र को उलट-पलट कर द्वेखते हुये) इस पर राज्याज्ञा की मुहर है। (खड़ा होकर) यह असंभव है। कुमार! ऐसा नहीं हो सकता। नहीं, राज-भक्ति की शपथ भी मुझसे ऐसा गर्हित कार्य नहीं करा सकती। (सैनिकों से) जाओ, पाटलिपुत्र से पधारे हुए इस अतिथि को अच्छी तरह देख-रेख में रक्खो। (सैनिक और संवादवाहक जाते हैं)
अशोक – पाटलिपुत्र से तुम इसी नयी कुमक की तो आशा कर रहे थे। राधागुप्त! जानते हो, इस आज्ञा के उल्लंघन के अपराध में तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता है।
सेनापति – जानता हूँ, कुमार! आपकी रक्षा के लिये मुझे सौ बार मरना
पड़े तो स्वीकार है।
अशोक – बस वीर, आज इसी तक्षशिला की भूमि से हमारे नवीन विद्रोह का सूत्रपात होगा। हम यहाँ विद्रोह का शमन करने आये थे पर आज स्वयं विद्रोही बन गये हैं। इसमें भी विधाता का कोई संकेत है। आर्यावर्त के विराट्‌ भविष्य की मेरी कल्पना सत्य होकर ही रहेगी। (रुककर) परंतु, परंतु, राधागुप्त आज तो यह एक विडम्बना है, आज तो हम दोनों ओर से शत्रुओं से घिरे हैं। एक ओर विशाल रणवाहिनी लिये गर्वोन्न त तक्षशिलाधीश और दूसरी ओर सुसीम के
निर्देशन में मगध की अपार सेना!
राधागुप्त – मगध की सेना शीघ्र ही आपकी होगी, कुमार! मगध का कौन ऐसा सैनिक है जिसे आपके गुणों ने मोहित नहीं कर लिया है! आपकी रणनीति, युद्ध-संचालन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ती है। सैनिकों में आपको इंद्र और कार्तिकेय का अवतार माना जाता है।

अशोक – सेनापति! तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति विशेष अनुराग है। भला मैंने अभी किया ही क्या है! एक छोटे से तक्षशिला के विद्रोह को भी अब तक शांत नहीं कर सका हूँ।
राधागुप्त – आप भूलते हैं, कुमार! मुट्ठी भर सैनिकों की सहायता से इतने दिनों तक टिके रहना, यह आपसे ही संभव था।
(प्रतिहार का प्रवेश)
प्रतिहार – कुमार की जय हो! तक्षशिला की सेना ने आक्रमण प्रारंभ कर दिया है। हमारी अगली पंक्ति में शत्रु के अश्वारोहियों से दरार पड़ने का भय है।
अशोक – (खड़े होकर) जाओ, कह दो कि सारी सेना त्रिभुज का रूप ले ले। कोई अपनी जगह से हटे नहीं। मैं स्वयं इस त्रिभुज के मध्य में रहूँगा। (राधागुप्त से) सेनापति! मैं प्राण देकर भी मगध की प्रतिष्ठा की रक्षा करने जा रहा हूँ। जीवित रहने पर तुम सुसीम से इस विश्वासघात का प्रतिशोध लेना। कलेजे के टुकड़े, आज्ञापालक सैनिकों को खूनी भेड़ियों के मुँह में झोंक देना, और फिर सहायता से मुँह मोड़ लेना। ओह! कैसा विश्वासघात है! नीच सुसीम, तुझसे प्रतिशोध लेने के लिए यदि मुझे दूसरा जन्म भी ग्रहण करना पड़े तो…।
राधागुप्त – महाराज को तो उचित-अनुचित का विचार करना चाहिए था। अंततः सम्राट्‌ तो अभी वही हैं। क्या उन्हें वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं है?
अशोक – महाराज! सेनापति! इस नरमेध के लिये जो-जो उत्तरदायी हैं, प्रत्येक को उत्तर देना होगा; चाहे वह स्वयं महाराज ही क्यों न हों! यहाँ नहीं तो भगवान्‌ के आगे…
राधागुप्त – यदि कुमार आज्ञा दें तो आत्मसमर्पण की बातें चलायी जायी।
अशोक – (जोर से) राधागुप्त! इन शब्दों के उच्चारण के पहले तुमने
अशोक के कानों से पिघलता हुआ शीशा क्यों नहीं उडेल दिया! इससे तो अच्छा यही था कि तुम मेरा मस्तक काटकर मगध भेज देते। मैं वीरतापूर्ण मृत्यु को कायरता के आत्मसमर्पण से कहीं अच्छा समझता हूँ। जाओ, राधागुप्त! अनुकूल समय पर सुरक्षित सेना लेकर शत्रु पर टूट पड़ना। यहाँ नहीं तो स्वर्ग में भेंट होगी।
(दोनों जाते हैं)

(युद्धवाद्य और नेपथ्य में शस्त्र-ध्वनि । एक ओर से राधागुप्त का हाथ में पत्र लिये प्रवेश)

राधागुप्त – प्रतिहार! प्रतिहार!
(प्रतिहार का प्रवेश)
राधागुप्त – प्रतिहार, जाओ, कुमार अशोक जहाँ कहीं भी हों, उन्हें यह पत्र दे आओ। उनसे निवेदन करना कि अभी तक्षशिला-नरेश की मंत्रि-परिषद्‌ की ओर से एक दूत यह महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव लेकर आया है। हमारे सैनिकों की एक टूकड़ी ने स्वयं तक्षशिला-नरेश को वंदी बना लिया है। सैनिकों का एक भी बूंद रक्त व्यर्थ न बहे, इसके लिए इस संधि-प्रस्ताव पर उनके अविलंब आदेश की अपेक्षा है।
(प्रतिहार जाता है। राधागुप्त विचारपूर्ण मुद्रा में टहलता है।
प्रतिहार का प्रवेश ॥)

प्रतिहार – देव! कुमार अशोक सैनिकों की अगली पंक्ति में खड़े होकर युद्ध का संचालन कर रहे हैं। उन्होंने वहीं से तक्षशिला की मंत्रि-परिषद्‌ के लिये यह संदेश भेजने का आदेश दिया है।
राधागुप्त – (पत्र हाथ में लेकर पढ़ता है) ठीक है। “मगध साम्राज्य की नींव प्रेमपूर्ण सहयोग पर आधारित है, न कि राष्ट्रों के पद-दलित स्वाभिमान पर ।’ कितना सुंदर विचार है! (आगे पढ़ता है) यदि आर्यावर्त-के सारे प्रदेश एक संगठन में नहीं बँधेंगे तो क्या परिणाम होगा? सिकंदर जैसे महत्त्वाकांक्षियों का भारतवर्ष की शस्य-श्यामला भूमि पर आक्रमण और एक-एककर समस्त देश का पराभव | ठीक है, ठीक है, परंतु इस पत्र में यह भी जोड़ना होगा कि तक्षशिला की वीरवाहिनी का सहयोग लेकर जब कुमार अशोक आगे बढ़ेंगे तो शैलराज हिमालय स्वयं झुककर उन्हें मार्ग देगा और भारत की पवित्र धरती की ओर आँख उठानेवालों का कुचक्र सदा के लिए
समाप्त हो जायगा। (घूमकर) प्रतिहार, तक्षशिला से आये विशेष दूत को मेरे मंत्रणा-गृह में भेज दो।

(तक्षशिलां का रणक्षेत्र। कुमार अशोक और बुद्धिसेन टहल रहे हैं।)

अशोक – बुद्धिसेन! भला तुम्हें रणभूमि में आने का साहस कैसे हो गया?
बुद्धिसेन – कुमार! मैं अहिंसा का पुजारी होने के कारण ही युद्ध से विमुख रहता हूँ, यदि शस्त्र ग्रहण करूँ तो ऐसी वीरता दिखाऊँ कि संसार देखता ही रह जाय।
अशोक – हाँ, हाँ, क्यों नहीं? तुम्हें तो वीर-पदक मिलना चाहिये।
बुद्धिसेन – अजी वह तो मैंने स्वतः एक मृत सैनिक की भुजा से निकाल लिया। भला जो मर गया वह वीर कैसे हो सकता है! यदि रहा भी हो तो उससे बड़ा वीर मैं हूँ क्योंकि मेरी ललकार सुनकर वह खड़ा नहीं हो सकता।
अशोक – तुम्हारा तर्क तो ठीक है परंतु जानते हो, अब तुम्हें उस वीर-पदक की परीक्षा देनी होगी।
बुद्धिसेन – मैं तैयार हूँ, कुमार! तक्षशिलाधीश से तो संधि हो रही है। फिर कभी युद्ध हो तो मेरा शौर्य देखिएगा।

अशोक – उसके लिये अगले युद्ध तक ठहरने की आवश्यकता नहीं। तुम्हें किसी अन्य वीर-पदकधारी से द्ंदव-युद्ध करना होगा।
बुद्धिसेन – द्वंद-युद्ध! (वीर-पदक खोलकर देते हुए) तो यह लीजिए आपका वीर-पदक, मेरा हाथ या पाँव कट गया या सर ही छिन्नत हो गया तो क्याप इस पदक से वापस आ जायगा? जीवन रहेगा तो बहुत से कार्य कर सकूँगा। केवल लड़ने-भिड़ने में क्या धरा है!

(राधागुप्त का प्रवेश)
राधागुप्त – अरे बुद्धिसेन! तुम कब आ गये? मगध का क्या समाचार है?
बुद्धिसेन – वहाँ का समाचार ही कहने के लिये मैं इतनी दूर आया हूँ। शपथ ले लो महीने भर की यात्रा में भर पेट भोजन भी किया हो तो… मिष्ठान्न की तो गंध भी नहीं मिली!
राधागुप्त – मूर्ख, भोजन की बात पीछे करना। पहले यह तो बता कि पाटलिपुत्र में क्या हो रहा है?
बुद्धिसेन – वही जो सदा से होता आया है। प्रतिदिन किसी-न-किसीके यहाँ से भोज़न का निमंत्रण आ ही जाता है।
राधागुप्त – इस बार भोजन की बात की तो जीभ निकाल लूँगा। यह बता सुसीम क्याट कर रहा है?
बुद्धिसेन – उन्होंने भी एक विराट्‌ सहभोज का आयोजन किया था जिसमें बड़े-बड़े मधुगोलक बने थे और मोदक के तो पहाड़ ही खड़े थे।
अशोक – जाने दो राधागुप्त! क्या करोंगे पूछकर। जबरदस्ती तो घोड़े को घास भी नहीं खिलायी जा सकती।
बुद्धिसेन – यही तो मैं भी कह रहा था। सुसीम को तक्षशिला की आपकी सफलता और यहाँ के विद्रोह की समाप्ति का समाचार मिल चुका है। मगध की स्थायी सेना पर से भी उसका विश्वास उठ गया है। बड़ी तेजी से भाड़े की सेना खड़ी की जा रही है।
अशोक – राधागुप्त, तुमने व्यर्थ ही अपना जीवन संकट में डाला। क्या होता यदि उस दिन तक्षशिला के रणक्षेत्र में मैं सदा के लिये सो जाता? न राज्य पाने की प्रतिद्ंद्धेता होती, न यह “बंघु-विग्रह।

(प्रतिहार का प्रवेश)
प्रतिहार – कुमार की जय हो, उज्जयिनी का एक दूत कुमार से मिलने आया है।
अशोक – आने दो!
(प्रतिहार का, दूत के साथ प्रवेश)

दूत – (प्रणाम करके) कुमार, उज्जयिनी की राजकुमारी ने यह पत्र आपकी सेवा में भेजा है। (पत्र देकर प्रतिहार के साथ जाता है)
अशोक – (पत्र लेकर पढ़ता है) राधागुप्त! यह असह्य है। क्या मैं इतना दुर्बल हूँ कि एक नारी की मर्यादा की रक्षा भी मुझसे नहीं हो सकती! राजकुमारी, महादेवी, मेरी वधू महादेवी का अपमान!
बुद्धिसेन – सुसीम ने उज्जयिनी के राजज्योतिषी से क्या कहा, जानते हैं कुमार?
अशोक – क्या कहा?
बुद्धिसेन – सुसीम ने कहा कि यदि राजकुमारी सुसीम की अंकशायिनी न बनना चाहें तो वे द्रोपदी की तरह मगध के सौवों राजकुमारों में से किसी एक का या एक से अधिक का वरण कर सकती हैं, परंतु उन्हें अशोक से संबंध तोड़ना ही होगा!
अशोक – (जोर से) बुद्धिसेन!
बुद्धिसेन – मैं शपथ खाकर कहता हूँ, कुमार! भरी सभा में सुसीम ने राजकुमारी का अपमान किया।
अशोक – और किसीने उस पापी का सिर नहीं उतारा? सारे मगध में मेरा एक भी ऐसा मित्र नहीं?
राधागुप्त – कुमार! मैंने भी यह समाचार सुना था। परंतु तुम्हें जानबूझ कर नहीं कहा कि कहीं तुम्हारे मन को आघात न लगे।
अशोक – और एक नारी के कोमल मन पर लगनेवाली चोट का तुमने तनिक भी विचार नहीं किया? क्या राज्यसत्ता ने सुसीम को इतना अंधा बना दिया कि वह कुलवधू की मर्यादा को भी भूल गया? कया वह नहीं जानता कि महादेवी मेरी परिणीता है। (आवेश में) राधागुप्त! मैं अब अशोक नहीं चंडाशोक बनना चाहता हूँ। उदारता, दया, क्षमा आदि शब्दों को आज से मेरे शब्दकोश में स्थान भी.नहीं मिलेगा। मैं किसी पर दया नहीं करूँगा क्योंकि किसी ने मुझ पर दया नहीं दिखायी, मैं किसीको क्षमा नहीं करूँगा क्योंकि किसीने मुझे क्षमा नहीं किया? मगध की राजवधू का अपमान! मेरी धर्मपत्नी का अपमान! राधागुप्त! मैं यह तलवार लेकर शपथ खाता हूँ कि मगध-कुल-कलंक सुसीम का शिरच्छेदन इसी तलवार से करूँ तो मुझे वीर की गति न प्राप्त हो। (पुकारता है)
प्रतिहार! प्रतिहार !!

(प्रतिहार का प्रवेश)
अशोक – जाओ, उज्जयिनी के दूत को इस आशय का पत्र दे दो कि अशोक राजकुमारी को भूला नहीं है, वह प्राण देकर भी उसके सम्मान की रक्षा करेगा।

(अशोक जाता है। प्रतिहार साथ जाता है।)

राधागुप्त – बुद्धिसेन! तुमने व्यर्थ राजसभावाली बात कह दी। अशोक के हृदय पर बहुत आघात पहुँचा है। अच्छा, यह. तो बताओ, पाटलिपुत्र की जनता हम लोगों के विषय में क्या सोच रही है।
बुद्धिसेन – वह तो कब की सुसीम के अत्याचारों से ञ्राहि माँग रही है। बस पाटलिपुत्र में हमने पाँव रक्खा नहीं कि …।
राधागुप्त – (बात काटकर, हँसते हुए) फूल-मालाओं की वर्षा हुई! यह बच्चों का खेल नहीं है, बुद्धिसेन! सत्ता को हस्तगत करना काले नाग से खेलना है, राजनीति की लपटों में उतरनेवाले को चार आँखें होनी चाहिये, दो सामने के शत्रु से उलझनें के लिए और दो पीछे के वारों को रोकने के लिए। मुझे प्रधान आमात्य खललातक से सूचना मिली है कि हमें शीघ्रातिशीघ्र मगध पहुँच जाना चाहिये। अगली पूर्णिमा को ही सुसीम के राज्याभिषेक की तिथि निश्चित हुई है। अभिषिक्त हो जाने पर मगध का एक-एक सैनिक सुसीम के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा देगा।
बुद्धिसेन – हाँ, हाँ, जितना शीघ्र चलें, अच्छा है। धरती पर सोते-सोते मेरी तो रीढ़ की हड्डी ऐंठ गयी है।

(जाते हैं)