rajrajeshwar ashok

प्रथम अंक : चतुर्थ दृश्य
(उज्जयिनी का राजउपवन। देवी गाती है।)
गीत

मेरे मन में कोई राधा वेसुध तान लिये बैठी है

राका निशि में अब मोहन की मुरली नहीं सुनाई दती
यमुना-तीर वही, पर कोई हलचल नहीं दिखाई देती
रूठ छिपी थी मानवती जो उस दिन श्याम तमाल-वनों में
चिर-वियोगिनी वह अब मेरे स्वर में बैठ दुहाई देती

युग-युग बीत गये पर अब भी वह निज मान लिये बैठी है

इतना रूप, राग, रस देकर, लेते इतनी क्रूर परीक्षा
कभी न पूरी हो पायेगी, इस राधा की विकल प्रतीक्षा
फूलों-सा आनन कुम्हलाया, आँचल फटा, चरण क्षत-विक्षत
जाने किस उद्धव से ली है, इसने प्रेम योग की दीक्षा

मैं आँसू बरसाती जाती, यह मुस्कान लिये बैठी है

इसका दुःख मेरे गीतों में, इसकी जलन हृदय में मेरे
मेरी साँसों में इसकी ही विरहाकुल साँसों के फेरे
यह मेरी चिर-तृषा, अमर अनुभूति, मूक प्राणों की भाषा
मर्म-दीप की शिखा न जिसको छू पाये शलभों के घेरे

चिर-अभिशापों में पलकर भी कुछ वरदान लिये बैठी है
मेरे मन में कोई राधा बेसुध तान लिये बैठी है

(ललिता का प्रवेश)

ललिता – राजकुमारी! राजकुमारी! ज्योतिषीजी लौट आये हैं।

देवी – ज्योतिषीजी! वे तो मगध गये थे!

ललिता – हाँ, देवि! वहाँ बड़ा भीषण संग्राम छिड़ा है। सुना है मगध की मंत्रि-परिषद ने’ कुमार अशोक को सप्राट्‌ घोषित कर दिया है। उधर शकरानी और महाराज विंदुसार सुसीम को गद्दी पर बैठाना चाहते हैं।

देवी – कुमार तक्षशिला से लौट आये?

ललिता – हाँ, राजकुमारी! वे अब शीघ्र ही मगध के सम्राट्‌ का पद सँभालेंगे। आर्यावर्त की साम्राज्ञी बनकर मुझे भूल तो न जाओगी, देवि!

देवी – तुझे उसी दिन भूलूँगी जिस दिन अपने आप को भूलूँगी। परंतु ललिता मेरा हृदय घबरा रहा है। न जाने आर्यपुत्र कैसे हैं! कहीं सुसीम उनका कुछ अनिष्ट कर बैठा तो! सत्ता का मोह मनुष्य से क्या नहीं करा देता। इसीलिये भगवान गौतम अनासक्ति का उपदेश देते हैं। जी करता है भिक्षुणी बनकर किसी बौद्ध-विहार में जा बैठूँ और भगवान तथागत के उपदेशों की शीतल छाया में जीवन-यापन करूँ।

ललिता – फिर वहीं विरागभरी बातें? यह भी सोचा है कि भिक्षुणी बन जाने पर तुम्हारी सुगंध के भिक्षु भ्रमर का क्या होगा?
देवी – भ्रमर को कलियों की कमी नहीं रहती, ललिता! उसका तो नाम ही चंचरीक है। अच्छा तू जा, राजज्योतिषी को यहाँ भेज दे। कहना, कुमारी ने एक स्वप्न देखा है। उसीके विचार के लिये बुलाया है। हाँ, मेरी वीणा देती जा, तब तक मैं कलवाले गीत का अभ्यास कर लूँ।

(ज्योतिषी का प्रवेश)

देवी – सादर अभिवादन ज्योतिषीजी!

ज्योतिषी – चिरंजीवी रहो पुत्री। मैं तो स्वयं मगध का समाचार देने तुम्हारे पास आ रहा था।

देवी – मगध का क्यां समाचार है, ज्योतिषीजी ?

ज्योतिषी – बेटी! मैं जानता हूँ, तुम अशोक का समाचार जानने को आतुर हो। तक्षशिला में अशोक ने जिस वीरता का प्रदर्शन किया उसने मगध में उसके रहे-सहे विरोधियों की भी बोलती बंद कर दी। अशोक को तक्षशिला में गुप्त रूप से वध करवाने की सुसीम और शकरानी की चाल भी काम नहीं आयी और वे ससैन्य पाटलिपुत्र आ पहुँचे।

देवी – फिर क्या हुआ? अब वे कैसे हैं?

ज्योतिषी – तुम तो जानती ही हो बेटी, मुझे मगध में पूर्ण सम्मान से रक्खा गया था परंतु मेरी गतिविधि की निगरानी रक्खी जाती थी। समझो, एक सम्मानित वंदी के रूप में मैं मगध में था।

देवी – आपके पत्र से इतना तो मैं समझ गयी थी, महाराज!

ज्योतिषी – एक दिन शकरानी मुझे बुलाकर कहने लगी कि यदि आप किसी तरह सुसीम को राजगद्दी दिलाने में सहाग्रेत्ता दे सकें तो आपको बहुत पारितोषिक दूँगी। मैंने अवसर का लाभ उठाया।

देवी – फिर क्या हुआ?

ज्योतिषी – होता क्या अशोक के पाटलिपुत्र में पहुँचने पर मैंने किसी प्रकार का भी रक्तपात नहीं होने दिया। राजसभा के सदस्यों के बीच चक्रवर्ती सम्राट्‌ के लक्षणों की घोषणा मुझे ही करनी थी। सुसीम और शकरानी का मैंने पूरा विश्वास प्राप्त कर लिया था कि मैं अशोक के विरुद्ध सुसीम को ही राज्यारोहण का अधिकारी घोषित करुंगा।

देवी – फिर आपने क्या किया? आर्यपुत्र का क्या हुआ?

ज्योतिषी – होता क्या? मैंने घोषणा की कि ज्योतिष-विचार के अनुसार राजगद्दी पर वही व्यक्ति बैठेगा जिसने उस दिन राजसी भोजन किया हो, राजसी वाहन का प्रयोग किया हो और राजसी शय्या पर शयन किया हो।

देवी – भला बुद्धक्षेत्र से लौटने वाले आर्यपुत्र को ये वस्तएँ कहाँ से मिलतीं, ज्योतिषीजी ?

ज्योतिषी – यही तो आश्चर्य है। संयोग से उस दिन अशोक राजचिह्र हाथी पर चढ़ कर आये थे, शुद्ध शस्य दधि-ओदन का उन्होंने भोजन किया था और थके हुए होने के कारण धरती माता की गोद में ही विश्राम किया था।

देवी – तब आपने क्याा उन्हें राज्य के अयोग्य ठहराया?

ज्योतिषी – (हंसकर) नहीं, ऐसा कैसे हो सकता था! अशोक के इस राजसी ठाठ के सम्मुख सुसीम की घोड़े की सवारी, पक्वान्न का भोजन और पर्यक की शय्या लौकिक रूप में कितनी भी बड़ी क्यों न समझी जाय, शास्त्रीय रूप से सर्वथा तुच्छ थी।
देवी – क्याो आपने ऐसा कह दिया?

ज्योतिषी – यदि मैं ऐसा कह देता तो अपनी पुत्री को यह समाचार देने उज्जयिनी आ पाता? मैंने शास्त्रों का सम्यक्‌ अनुशीलन करने के लिये समय माँगा। जब अशोक प्रधानमंत्री से संपर्क स्थापित कर अपने शिविर में चले गये तब मैं भी उज्जयिनी के लिये चल पड़ा।

देवी – तो फिर विषय अनिर्णीत रहा? राजगद्दी पर किसका अधिकार हुआ?

ज्योतिषी – राजगद्दी के आधिपत्य का निर्णय तो तलवार ही कर सकती है, बेटी! शास्त्रीय-व्यवस्था नहीं। मैंने अपना निर्णय मंत्रि-परिषद्‌ के पास भिजवा दिया था। (देवी को चिंतित देखकर) तू चिंता मत कर। अशोक निश्चय मगध-सम्राट्‌ बनेंगे। (रुककर)…हाँ, एक बात है, मेरे नक्षत्रों की गणना के अनुसार राज्याभिषेक के अवसर पर राजा के पास राजमहिषी का होना आवश्यक है।

देवी – राज्याभिषेक या युद्धाभिषेक, मुझे आर्यपुत्र के पास ही रहना चाहिए। यदि वे विजयी हुए तो उनके गौरव की अधिष्ठात्री राज्यलक्ष्मी बनकर और-यदि … (चुप हो जाती है)

(ललिता का प्रवेश)
ललिता – कुमारीजी! कुमारीजी ! (सहसा राज-ज्योतिषी को देखकर) ज्योतिषीजी! चरण-स्पर्श (रुक जाती है)

देवी – क्या कहना चाहती है, ललिता? इस संकट काल में ज्योतिषीजी ही तो मेरे एक मात्र सहायक हैं। निःसंकोच होकर बता।

ललिता – कुमारीजी, मुझे ज्ञात हुआ है कि मगध की घटनाओं से सम्राट्‌ बहुत चिंतित हैं। उन्होंने इस संबंध में विचार करने के लिए मंत्रिपरिषद की आवश्यक बैठक भी बुलायी है। मुझे यह
आदेश दिया गया है कि मैं नृत्य-गायन आदि से आपको चिंतित न होने दूँ।

देवी – आर्यपुत्र रण-भूमि में जीवन और मरण की बाजी खेल रहे हों और मैं राजभवन की अमराइयों में कोयल-सी कुहकती फिरूँ? (ज्योतिषीजी की ओर मुड़कर) संकोच ने मेरी जीभ पर ताला जड़ दिया है परंतु, महाराज! आप ही मेरे लिये कुछ करें। और कुछ नहीं तो कम-से-कम मुझे तो आर्यपुत्र के पास मगध जानेकी अनुमति दिला दें।

ज्योतिषी – मैं निश्चय तेरी सहायता करूँगा, पुत्री! तुझे प्रत्येक दृष्टि से इस समय वहीं रहना चाहिए। परंतु, तू कुमार अशोक के लिए चिंता मत कर। वे निश्चय विजयी होकर आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट्‌ बनेंगे। इतिहास की व्रज्याएँ उनके पद-चिह्- धारण करने के लिये लालायित हो रही है। अच्छा, मैं चलता हूँ, बेटी! महाराज को इस संबंध में अपना निर्णय देकर तेरे प्रस्थान के लिये राजी भी करना है।

देवी – यदि पिताजी न मानें तो?

ज्योतिषी – मानेंगे भला कैसे नहीं! और मैंने तो मंत्रि-परिषद को भी तुष्ट करने की युक्ति सोच ली है। बैशाख-पूर्णिमा पर बोधिवृक्ष के तले दस सहस्र दीपक आलोकित करने का व्रत क्या भूल गयी, बेटी?

देवी – वह भी कभी भूल सकती हूँ, महाराज! अब तो आपका ही भरोसा है।

ज्योतिषी – अच्छा, मैं चलूँ।
(ज्योतिषीजी का प्रस्थान)

देवी – ललिता! मेरा मन नहीं मानता। न जाने आर्यपुत्र किस अवस्था में हों! क्यों न हम लोग भेष बदलकर मगध चलें! महाराज को तो ज्योतिषीजी समझा ही लेंगे।

ललिता – मैं तो आपकी छाया हूँ, कुमारी!

देवी – तो सुन (कान में कुछ कहती है)

ललिता – ठीक है। मैं समझ गयी। ऐसे अवसर पर, जब स्वामी के प्राणों पर संकट हो, लौकिक मर्यादाएँ थोड़े ही देखी जाती हैं।

देवी – तो चल! सारी व्यवस्था करनी है। हमें विलंब नहीं करना चाहिए।

(प्रस्थान)