rajrajeshwar ashok

द्वितीय अंक : चतुर्थ दृश्य
(राधागुप्त के साथ महामात्य खल्लातक का प्रवेश)

खल्‍लातक – राधागुप्त! तुम्हारे पूर्वी अभियान में कितनी सेना की आवश्यकता पड़ेगी?

राधागुप्त – यही कोई दो लाख पैदल और पच्चीस हजार घुड़सवार बंग और कलिंग की विजय के लिये पर्याप्त होंगे, महामात्य!

खल्‍लातक – ठीक है इसका प्रबंध हो जायगा। तुम शीघ्र सेना के प्रस्थान की व्यवस्था करो। सुना है, तक्षशिलाधीश भी पंचनद के विद्रोह में साथ दे रहे हैं।

राधागुप्त – मुझे केवल मगध की सदूभावना की.आवश्यकता है, महामात्य!
खल्‍लातक – देखो, राधागुप्त! यह मात्र सदूभावना का नहीं, सहयोग का प्रश्न है। तुम तो जानते ही हो, सम्राट्‌ अशोक ने अपने सम्मुख दिग्विजयी सिकंदर का आदर्श रक्खा है। वे समस्त आर्यावर्त को ही नहीं सिंहल, ईरान, चीन और यूनान के देशों को भी मौर्य-साम्राज्य की परिधि में देखना चाहते हैं। हमें पंचनद के राज्यों से इस विजय-अभियान में सेना और शस्त्रास्त्र की पूरी सहायता मिलनी चाहिए।

राधागुप्त – मुझे दृढ़ विश्वास है, पंचनद का प्रत्येक गणतंत्र तन-मन-धन से हमारा साथ देगा। परंतु महामात्य! यह विजय-अभियान किस लिए? प्रत्येक देश को मगध की सार्वभौम सत्ता के नीचे लाने की कल्पना में कितना बड़ा अंहकार है!

खल्‍लातक – राधागुप्त! तुम्हें सम्राट्‌ का विशेष अनुग्रह प्राप्त है अन्यथा ऐसे विचारों के रहते तुम्हारा स्थान शासन में न होकर…

राधागुप्त – कारागार के सींकचों में होता, यही न कहना चाहते हैं महामात्य! आपके पास हृदय नहीं है। आँख मूँदकर शासन की नीति का पालन, यही आपके जीवन का उद्देश्य रहा है। परंतु महामात्य! मैं तलवार लेकर युद्धभूमि में भटक चुका हूँ। दया, करुणा, ममता और स्नेह की कितनी सरिताएं सुखाकर विजय का एक बिंदु रस बनता है, यदि आप यह देख पाते!

खल्‍लातक – तब तो तुम्हें चूड़ियाँ पहनकर घर पर ही बैठना चाहिए था, राधागुप्त! तक्षशिला और पाटलिपुत्र के युद्ध में तुम्हारी वीरता की गाथा सुनकर मैंने तुम्हें कुछ और ही समझा था।
राधागुप्त – भूलते हैं, महामात्य! मैं आज भी वही राधागुप्त हूँ। अन्याय और अनीति के विरोध में आज भी मेरी तलवार उसी तीव्रता से चल सकती है। परंतु इस अकारण होनेवाले नरमेध में मुझे स्वाद नहीं मिलता । फिर भी आप चिंतित न हों, मैं अपना उत्तरदायित्व भली-भांति समझता हूँ। मेरे कारण आपको या समप्राट्‌ को कभी नीचा न देखना पड़ेगा।
(प्रतिहार का प्रवेश)

प्रतिहार – सावधान, सम्राटू, अशोक पधार रहे हैं।

(प्रतिहार का प्रस्थान)

(अशोक का प्रवेश)

अशोक – क्यों महामात्य! मेरे दक्षिण के विजय-अभियान का प्रबंध हो गया?

हाँ, सम्राट्‌! इसके अतिरिक्त पूर्वीय अभियान के लिये सेनापति राधागुप्त दो लाख पैदल और पच्चीस हजार अश्वारोहियों के साथ सन्नद्ध हैं।

अशोक – ठीक है, ठीक है, मैं जानता हूँ! महामात्य का उत्साह सदैव मुझसे दो पग आगे ही रहता है।

(प्रतिहार का प्रवेश)

प्रतिहार – सम्राट्‌ की जय हो, नालंदा महाविहार से एक भिक्षु आये हैं।
अशोक – आने दो!

(प्रतिहार का प्रस्थान। भिक्षु का प्रवेश)

अशोक – कहिये भिक्षुदेव! क्या महास्थविर उपगुप्त का शुभाशीर्वादि लेकर आये हैं? मुझे इस समय उसकी बड़ी आवश्यकता है।

भिक्षु – महास्थविर का आशीर्वाद तो प्राणी मात्र के लिये सदैव सुलभ है, देव! उसके लिये मुझे पाटलिपुत्र आने की आवश्यकता नहीं थी।

खल्‍लातक – भिक्षुदेव! स्पष्ट शब्दों में अपना आशय कहिये। महास्थविर क्या चाहते हैं?

भिक्षु – सम्राट्‌! महास्थविर चाहते हैं, विश्वविजय के नाम पर होनेवाला यह नर-संहार रोका जाय। विश्व में सदूभावना और मैत्री का प्रसार हो।

खल्‍लातक – (जोर से) भिक्षुक! तुम्हें यह न भूलना चाहिए कि तुम आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट्‌ अशोक से बातें कर रहे हो।

अशोक – (हँसकर) नहीं महामात्य! यदि महास्थविर के स्थान पर मैं होता तो मैं भी संभवतः ऐसा ही संदेश देता। राज्य-संगठन और कर्म-कोलाहलमय वस्तु-जगत से दूर “अहिंसा परमोधर्म:” का मंत्र जिन्होंने जीवन भर तोते की तरह रटा है, उन भिक्षुओं से और किस संदेश की आशा करते हैं, महामात्य! भिक्षु! जाओ, अपने महास्थविर से कहना, अशोक का उद्देश्य भी संसार में शांति की स्थापना ही करना है, परंतु जब तक धरती के सारे देशों को एक झंडे के नीचे नहीं खड़ा किया जायगा, शांति का स्वप्न पूरा नहीं होगा। ‘वसुधैव कुटुंबकम्‌” के आदर्श को चरितार्थ करने के लिये भी सारी वसुधा को कूटुंब के एक मुखिया के अधीन होना ही पड़ेगा।

भिक्षु – हिंसा के साधन द्वारा अहिंसा की प्राप्ति नहीं हो सकती, सम्राट्‌! अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरों की स्वतंत्रता का आदर इस देश की पुरातन संस्कृति है।

अशोक – इस अनाक्रामक नीति के कारण ही बार-बार विदेशी विजेताओं द्वारा आर्यावर्त का ध्वंस हुआ है, भिक्षु! मुझे विजय चाहिए, साम्राज्य चाहिए, सारी धरती और यदि संभव हो तो आकाश को भी पदाक्रांत कर सके, ऐसी वीर-सेना चाहिए। मुझे वही व्यवस्था चाहिए जो इसका समर्थन करे। यदि पुरातन शास्त्रों से काम न चला तो मैं नये शास्त्र रचवा लूँगा। यदि पुरानी व्यवस्थाओं ने मेरा साथ नहीं दिया तो मैं नयी व्यवस्थाएं लिखवा लूँगा। जाओ, भिक्षु! अपने महास्थविर से कह देना कि महास्थविर का कार्य स्वर्ग और नरक की गुत्थियाँ सुलझाना है, राजनीति के जटिल प्रश्नों से वे दूर ही रहें तो अच्छा है।
भिक्षु – जाता हूँ, सम्राट! समय आने पर सम्राट्‌ को महास्थविर के संदेश की सत्यता का बोध होगा। तब तक महाविहार में हम आपके लिये प्रार्थना करेंगे ।

(जाता है)

अशोक – देखा, महामात्य! महास्थविर उपगुप्त समझते हैं कि राज्यारोहण के बाद भी मगध की शासन-नीति उसी ढीले-ढाले रूप में चल रही होगी। क्या उन्हें मेरी चमत्कृत करनेवाली विजयों से प्रसन्‍नता नहीं होती?

राधागुप्त – प्रसन्‍नता! सम्राट्‌, मुझे तो सूचना मिली है कि बुद्धगया और नालंदा के महाविहार साम्राज्य-विरोधियों के षड़यंत्र के केंन्द्र बन गये हैं। अहिंसा के नाम पर वहाँ दिन-दहाड़े हमारी नवीन रण-योजनाओं की आलोचना होती है। इस शांति-प्रचार की छाया मगध की मंत्रि-परिषद्‌ तक भी पहुँच चुकी है।
अशोक – क्या यहाँ भी कोई ऐसा भाग्यहीन है जो मेरी साम्राज्य-विस्तार की नीति का विरोधी हो? यह सारा अभियान मगध की गौरव-वृद्धि के लिए ही तो है, महामात्य!

राधागुप्त – सम्राट्‌! मैं समझता हूँ यह व्यंग्य किसके लिए है। मैंने इस विश्व-विजय-अभियान के प्रति अपनी अनास्था को कभी चाटुकारिता का परिधान नहीं पहनाया है।

अशोक – यह तो वैसा ही हुआ कि दाहिना हाथ तलवार लेकर बढ़े और बायाँ हाँथ उसका विरोध करे। तुम्हें तो मैंने वीरों में अग्रणी कहा था, राधागुप्त!

राधागुप्त – राधागुप्त की वीरता में कोई कमी नहीं आयी है, सम्राट! परंतु निरर्थक रक्तपात से मेरा जी घबरा रहा है।
अशोक – राधागुप्त! यदि तुमने यह सोचकर मगध का राज्यसिंहासन पाने में मेरी सहायता की थी कि मैं सम्राट्‌ बनने पर पारितोषिक-वितरण करके, आखेट, मद्य और मद्यपायिनियों में अपना समय व्यतीत करूँगा तो तुमने बहुत बड़ी भूल की थी। यदि मेरे विश्व-साम्राज्य के सपनों को तुम कल्पना की उड़ान समझकर सुनते रहे तो तुम्हारी बुद्धि सचमुच तरस खाने योग्य है।

राधागुप्त – नहीं, सम्राट! मैं आपकी वीरता की पूजा करता हूँ, परंतु रात-दिन के इस रक्तपात और युद्ध की विभीषिका को देखकर मैं सोचने लगा हूँ कि क्या इस मूल्य पर संसार का प्रभुत्व भी ग्रहण करने योग्य है?

अशोक – राधागुप्त! तुम्हें कुछ दिन विश्राम की आवश्यकता है। मगध का साम्राज्य तो हमारे प्रयत्नों की भूमिका मात्र है, यदि जीवन का यही इष्ट होता तो इसके लिए मैं कभी इतना रक्‍तपात सहन नहीं करता, भाइयों का वध नहीं होने देता। सुसीम भी तो अंततोगत्वा मेरा भाई ही था, सम्राटू-पद के योग्य भी था। क्या मैं भी महास्थविर प्रज्ञाधर के समान किसी बौद्ध-विहार में बैठकर शांति-मंत्र का जाप नहीं कर सकता था! परंतु, राधागुप्त! मैंने अपने अंतरतम में एक सपना देखा था।

राधागुप्त – सपना नहीं, सम्राट्‌! आज वह इतिहास का अंग बन चुका है। शत-शत ज्वाला-वर्षिणी सेनाओं के रूप में राज्य-तंत्रों की क्षुद्र सीमाओं को निगलता हुआ वही स्वप्न आज समस्त आर्यावर्त के सार्वभौम साम्राज्य के रूप में मूर्त हो रहा है। विस्तीर्ण नील जलधि के वक्षस्थल पर द्वीप-द्वीपांतरों में मगध की राज-ध्वजा फहरानेवाले असंख्य जलपोत उसकी यथार्थता के प्रमाण हैं। नगाधिराज हिमालय का प्राचीर आज डोल रहा है और उसके पार के देश भी सम्राट्‌ की सेनाओं के पदचाप से अपने को सुरक्षित नहीं समझते।
अशोक – नहीं, महामात्य! मेरे सपनों का अंत यहीं नहीं होता। साम्राज्य का विस्तार, वृहत्तर आर्यावर्त, देशांतर-विजय, ये तो उसके प्रारंभिक रूप हैं। इससे भी ऊपर, उठकर मैं एक सार्वभौम विश्व-साम्राज्य की नींव डालना चाहता हूँ, जिसका क्षेत्र होगा सप्तसागर-परिवेष्टित समस्त भूमंडल और जिसका सदस्य होगा मनुष्य नामधारी प्रत्येक प्राणी तुम्हें मेरे पुरुषार्थ या लक्ष्य, दोनों में किस पर संदेह है, राधागुप्त?
राधागुप्त – क्षमा करें, सम्राट्‌! छोटे-छोटे पंखों से उड़नेवाला पक्षी क्या आकाश की लंबाई-चौड़ाई नाप सकता है! मैं अपने मोह पर बहुत लज्जित हूँ।
अशोक – नहीं, राधागुप्त! तुम मगध-साम्राज्य के रल हो। जाओ यथैष्ट विश्राम लेकर पूर्वीय अभियान के लिये प्रस्थान की तैयारी करो।
(राधागुप्त का प्रस्थान)
(प्रतिहार का प्रवेश)
प्रतिहार – सम्राट्‌ की जय हो! एक स्त्री सम्राट्‌ का दर्शन करना चाहती है। वह कहती है कि सिंहल के युद्ध में उसके पति और पुत्र दोनों मारे गये।

अशोक – उसे यहाँ लाने की आवश्यकता नहीं है। कोषाध्यक्ष से आजीवन भत्ते की व्यवस्था करा दी जाय।

(प्रतिहार जाता है)

अशोक – हाँ, महामात्य! तक्षशिला और बुद्धगया के विद्रोह की बात तो अधूरी ही रह गई।

खल्‍लातक – बौद्ध भिक्षुओं का यदि समय पर शमन न किया गया तो ये शांतिप्रियता और करुणा की ऐसी धारा बहा देंगे क्रि हमारी सारी योजनाएँ विफल हो जायँगी।

अशोक – इस विषय में आप मेरी नीति भली-भाँति जानते हैं, महामात्य! हमें किसी धर्म से विरोध नहीं है परंतु मार्ग में आनेवाली किसी भी बाधा को दूर करना ही होगा। मैं एक मगध – सैनिक की तलवार को एक सहस्त्र बौद्ध भिक्षुओं के मस्तक से अधिक मूल्यवान समझता हूँ।

खल्‍लातक – मैं तो समझता हूँ कि राज्य में ऐसी आज्ञा प्रचारित कर दी जाय कि युद्ध का विरोध करनेवाले बौद्ध-संन्यासियों को मृत्युदंड दिया जायगा।

राजराजेश्वर अशोक
(प्रतिहार का प्रवेश)

प्रतिहार – सम्राट्‌ की जय हो। कुछ सैनिक भूतपूर्व महाबलाधिकृत का समाचार लाये हैं।

अशोक – उन्हें यहाँ लाया जाय।

(दो सैनिक चंडगिरि को भिक्षुक के भेष में वंदी बनाये हुए लाते हैं)

एक सैनिक- शोण के तट पर ये भिक्षुक के भेस में वंदी किये गये हैं।
दूसरा सैनिक- पकड़े जाने पर इन्होंने आत्म-हत्या का प्रयास किया था।

अशोक – क्यों, चंडगिरि! तुम अशोक से मिलने की अपेक्षा मृत्यु को श्रेयस्कर समझते थे, क्या मैं इतना क्रूर हूँ?

खल्‍लातक – सम्राट्‌! प्रत्येक व्यक्ति अपने मापदंड से ही संसार को नापता है। चंडगिरि को मगध के शासन-प्रबंध का अच्छा ज्ञान है।
अशोक – चंडगिरि की प्राणरक्षा के लिये आपकी युक्ति बड़ी सुंदर है, महामात्य! परंतु चंडगिरि का मुझ पर सदा ही विशेष अनुग्रह रहा है। जानते नहीं, मेरे मनोरंजन के लिये इन्होंने राज-प्रासाद में एक सुंदर तरुणी को भेजा था।

चंडगिरि – सम्राट्‌! मैं महान पातकी हूँ। मुझे प्राणदंड दीजिए, सम्राट्‌ मुझे प्राणदंड दीजिए।

अशोक – जो मरना चाहते हैं उन्हें प्राणदंड नहीं जीवनदंड दिया जाता है। जाओ, चंडगिरि! तुम महामात्य के आदेशानुसार मगध की सेवा करो। राष्ट्रीय युद्ध-नीति के इस गंभीर काल में पंचमांगियों से मगध की रक्षा करने के लिये तुम्हारे जैसे कठोर व्यक्तियों की मुझे बड़ी आवश्यकता है। सैनिको! इसे छोड़ दो।

(सैनिक चंडगिरि को छोड़ देते हैं)

चंडगिरि – मैं सम्राट्‌ का कृतज्ञ हूँ और इस जीवन को सम्राट्‌ की दी हुई बहुमूल्य थाती समझता हूँ। मैं सम्राट्‌ के प्रति राजभक्ति की शपथ लेता हूँ।

अशोक – चंडगिरि! तुम्हें पाटलिपुत्र के प्रधान नगर-रक्षक के पद पर नियुक्त किया जाता है। सम्राट्‌ के शत्रुओं और क्लीवता फैलानेवाले बौद्ध-भिक्षुओं पर कड़ी दृष्टि रखना। और हाँ, विद्रोह फैलानेवाले तथा युद्ध-नीति का विरोध प्रचारित करने वाले किसी भी बौद्ध-भिक्षु का शिर काटकर लानेवाले को पारितोषिक देने की भी घोषणा कर दो जिससे गृहस्थ उन्हें सहायता देने में भय खायें।

चंडगिरि – (सिर झुकाकर) जैसी सम्राट्‌ की आज्ञा
(चंडगिरि का प्रस्थान)

अशोक – महामात्य! शांतिवादियों को त्रस्त करने की आपकी यह युक्ति बड़ी सुंदर है।

खल्लातक – सम्राट्‌ की प्रत्येक इच्छा कार्यान्वित करने में मैं अपना गौरव समझता हूँ।

अशोक – मुझे आप पर गर्व है, महामात्य! आइए अब युद्धभूमि से विदा लेनेवाली सेना का निरीक्षण करें। परंतु महाकाल से मुठभेड़ करने जाती हुई सेना के संमुख मुझे अपना आदर प्रगट करने के लिये नंगे-सिर ही जाना चाहिए।

(मुकुट उतारकर सिंहासन पर रख देता है)

(अशोक और खल्लातक का प्रस्थान वीतशोक का प्रवेश)

वीतशोक – किधर गयी, इधर ही तो आयी थी? रुक्मिणी! ओ रुक्मिणी! मेरी प्यारी रुक्मिणी! सचमुच तूने अपने कृष्ण-कन्हैया को हरा दिया। परंतु तेरे नयन-बाण से तो बड़े-बड़े वीरों के भी छक्के छूट जाते हैं, मेरे जैसे रात-दिन मदिरा में गर्क रहने वाले, पहले ही से हारे हुये प्रेमी को हराने में क्या वीरता है!
(आगे बढ़कर और राजमुकुट देखकर)
ऐं! यह क्या! राजमुकूट! अर्थात्‌ राजा बनने का सीधा और सरलतम मार्ग। अशोक और वीतशोक में अंतर ही क्या है! यही राजमुकुट तो। मेरा नाम अशोक से भी बड़ा है। मैं भी सम्राट्‌ विंदुसार का पुत्र हूँ। आजतक मैं सम्राट्‌ क्यों नहीं बना! केवल इसीलिये न कि मुझे राज्य से अधिक राज-नर्तकी प्रिय है। (फिर मुकुट क़ी ओर देखता है और उसे हाथों से उठा लेता है) इसीके कारण तो अशोक आज चक्रवर्ती सम्राट्‌ बन बैठा है जब कि मुझे राज-भवन की छोटी-छोटी दासियाँ भी घुड़क देती हैं। परंतु यह तो आज मुझे सहज-सुलभ हो गया है। भाग्य के वरदान की तरह सामने ही पड़ा है। (राजमुकुट रखकर) सपना तो नहीं है। आँखें तो खुली हैं। (दोनों हाथों में आँखें मूँद लेता है) अब आँखें खोलकर देखने पर भी यदि यह राजमुकूट यहीं दिखाई पड़े तो समझना चाहिये कि सपना नहीं है। (हाथ हटा लेता है और आँखें खोलकर देखता है) नहीं, सपना नहीं है। तो मैं इसे पहन लूँ? (मुकुट उठाकर सिर के सामने करता है) इसमें तो इतना भी बल नहीं कि आत्म-रक्षा के लिये हलका-सा भी प्रतिरोध कर सके। मैं भी कितना बड़ा मूर्ख था कि आज तक इसे पहने बिना घूमता रहा! खैर, सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाय तो भूला नहीं कहलाता। अशोक इसी के कारण तो सम्राट्‌ कहलाता है। नहीं तो उसमें कौन सी अन्य विशेषता है जो मुझमें नहीं है । खैर, बहुत दिनों अशोक का नाम गूँजा, अब कुछ दिन वीतशोक का सिक्का भी चलना चाहिये । धरती और स्त्री किसी एक की होकर थोड़े ही रहती है!

(मुकुट पहन लेता है।)
ओह ! इसको तो पहनते ही मैं गंभीर हो गया। जी करता है कि बस तलवार हाथ में लेकर विश्व-विजय को निकल पड़ूँ। व्यर्थ ही अब तक सुरा-सुंदरियों में जीवन बीता। अब यदि रुक्मिणी
भी आ जाय तो मैं उसे भी डाँट सकता हूँ। रुक्मिणी! ओ रुक्मिणी! देख मैं सम्राट्‌ बन गया हूँ, अब तू राजरानी बनेगी।

(अशोक का खल्लातक के साथ प्रवेश)

राजराजेश्वर अशोक
अशोक – यह क्या! वीतशोक! सैनिको, इसे वंदी कर लो।
(सैनिक आकर वीतशोक को वंदी कर लेते हैं)
वीतशोक – (लज्जित और भयभीत मुद्रा में) मुझे क्षमा करो, भैया!

अशोक – मूर्ख, तुझे ऐसा करने को किसने कहा? जानता है इस अपराध का दंड मृत्यु है।

खल्लातक – सम्राट्‌! क्षमा करें, यह आपका सगा भाई है।

अशोक – (व्यंग्य से) हाँ, सगा भाई है। मैं सदैव इसके अनुत्तरदायी जीवन से लज्जित रहा हूँ, परंतु आज तो इसने बहुत बड़ी उद्दंडता भी की है।

वीतशोक – (झुककर) भैया! नहीं नहीं, सम्राट्‌! मैं क्षमा की भीख माँगता हूँ। आज से मैं मगध में अपना मुँह भी नहीं दिखाऊँगा। भिक्षुक बनकर नये प्रकार से जीवन जीने क प्रयास करूँगा।
मुझे क्षमा करें, मैया।

खल्लातक – सम्राट! क्षमा करें।

अशोक – अच्छा, दूर हो जा, अब कभी मुझे अपना मुँह न दिखाना।
(वीतशोक सिर झुकाये चला जाता है।)

अशोक – कभी मुझे अपना मुँह न दिखाना! यह मैं क्या कह गया! आप ठीक कहते थे! महामात्य! ऐसे अनुत्तरदायी और नासमझ के व्यवहार पर मुझे इतना रोष नहीं करना चाहिए था। परंतु मैं क्या करूँ! मेरा स्वभाव ही इन दिनों चिड़चिड़ा-सा रहता है। एक ओर साम्राज्ञी रूकर बौद्ध विहार में जा बैठी है तो दूसरी ओर अंतरंग सखा राधागुप्त भी विरागियों की-सी बातें करता है। महत्ता एक निर्वासन ही तो है। भीड़ से घिरे रहने पर भी मेरी आत्मा में श्मशान का-सा सूनापन है। अच्छा, महामात्य! अब आप जाइए। मैं विश्राम करना चाहता हूँ।

(प्रस्थान । पटाक्षेप)