ravindranath:Hindi ke darpan me

अभिसार

संन्यासी उपगुप्त

मथूरा पूरीर प्राचिरेर तले एकदा छिलेन सुप्त ।
नगरीर दीप निवेछे पवने,
दूयार रूद्ध पौर भवने;
निशिथेर तारा श्रावनगगने घनमेघे अवलुप्त ।।

काहार नूपूर शिंजित पद सहसा बाजिलो बक्षे !
संन्यासीबर चमकि जागिलो,
स्वप्नजड़िमा पलके भाँगिलो,
रूढ़ दीपेर आलोक लागिलो क्षमासुन्दर चक्षे ।।

नगरीर नटी चले अभिसारे यौवनमदे मत्ता ।
अंगे आँचल सुनील वरन,
रूनूझूनू रवे बाजे आभरण,
संन्यासी गाये पड़िते चरन थमिलो बासवदत्ता ।।

प्रदीप धरिया हेरिलो ताहार नवीन गौरव कान्ति
सौम्य सहास तरून बयान,
करूणाकिरणे विकच नयान,
शुभ्र ललाटे इंदुसमान भातिछे स्निग्ध शान्ति ।।

अभिसार

संन्यासी उपगुप्त
एक बार प्राचीर निकट मथुरा के रहे सुसुप्त
दीप बुझे खा झंझा झोंके
बन्द हुए थे पट भवनों के
पावस निशि थी, तारे भी थे मेघों में अवलुप्त

सहसा आहट सुनी किसी नूपुरशिंजित पगतल की
चौंक, चकित जागा संन्यासी
टूटी नींद, देव-प्रतिमा-सी
दीपक-द्युति में एक गौर छवि शांत दृगों में झलकी

लौट रही थी नगरवधू मधुउत्सव से मदमत्ता
नीलाम्बरसज्जित कोमल तन
रुनझुन बजते थे आभूषण
संन्यासी पर पग लगते ही ठहरी वासवदत्ता

रख प्रदीप, देखी रमणी ने सन्मुख मोहक कान्ति
यौवनदीप्त गौर स्मित आनन
करुणा-स्नेह भरे युग लोचन
शुभ्र भाल पर इंदु-विभा-सी स्निग्ध तपोज्ज्वल शान्ति

 

कहिलो रमनी ललितकंठे, नयने जड़ित लज्जा,
“क्षमा करो मोरे, कूमार किशोर,
दया करो यदि गृहे चलो मोर
ए धरणीतल कठिन कठोर, ए नहे तोमार शय्या !”

संन्यासी कहे करूणवचने, “अयि लावण्यपुंजे !
एखनो आमार समय होये नी,
यथाये चलेछो जाओ तुमि धनी
समय ये दिन आसिबे आपनी याइबो तोमार कुंजे ।।”

सहसा झंझा तड़ित शिखाय मेलिलो बिपुल आश्य ।
रमनी काँपिया उठिलो तरासे,
प्रलयशंख बाजिलो बाताशे,
आकाशे बज्र घोर परिहासे हासिलो अट्टहास्य ।।

बर्ष तखनो होए नाइ शेष, ऐसेछे चैत्र संध्या ।
बातास होएछे उतला आकुल,
पथ तरुशाखे धरेछे मूकूल,
राजार कानने फुटेछे बकूल, पारूल, रजनीगंधा ।।

अति दूर होते आसिछे पवने बाँशिर मदिर मंद्र ।
जनहीन पुरी, पुरबासी सबे
गेछे मधुबने फूल-उत्सवे,
शून्य नगरी निरखि नीरवे हासिछे पूर्णचंद्र ।।

बोली तरुणी लाजभरी, सकुचाई स्नेहप्रणत हो
“क्षमा करो यदि, हे तापसवर !
चलो कृपा करके मेरे घर
शोभा देता नहीं शयन भू का यह कोमल तन को”

संन्यासी ने कहा, “आज तो मैं यह कष्ट न दूँगा
अभी न समय हुआ है मेरा
अभी तुम्हें जग ने है घेरा
जिस दिन होगा समय, देवि ! मैं आकर स्वयं मिलूँगा”

सहसा झंझानिल ने आकर कर का दीप बुझाया
भय छाया रमणी के मन में
वज्र-घोष-सा हुआ गगन में
अट्टहास कर नभ ने मानो निज परिहास जताया

नहीं वर्ष भी शेष हुआ था, चैत्र-पूर्णिमा आयी
गदराया तरुओं का यौवन
मंद पवन, फूले वन-उपवन
प्रात खिले पाटल, निशि में रजनीगंधा मुस्काई

आती थी सुदूर मधुवन से वंशी की ध्वनि मादक
छोड़ पुरी, पुरवासी सारे
थे मधु-उत्सव-हेतु सिधारे
एकाकी पूनो-शशि था सूनी नगरी का रक्षक

निर्जन पथे ज्योत्सनाआलोते संन्यासी एका यात्री ।
माथार उपरे तरुवीथिकार
कोकिल कूहरि उठे बारबार,
एतदिन परे ऐसेछे कि तार आजि अभिसार-रात्रि ?

नगर छाड़ाये गेलें दंडी बाहिर प्राचीर-प्रान्ते ।
दाँडालेन आसि परिखार पारे
आम्रवनेर छायार आँधारे
के उई रमनी पड़े एक धारे ताहार चरनोपांते ?

निदारूण रोगे मारी गूटिकाय भरे गेछे तार अंग ।
रोगमसि-ढाला कालि तनू तार
लये प्रजागने पूर परिखार
बाहिर फेलेछे करि परिहार विषाक्त तार संग ।।

संन्यासी बसि आड़स्त शिर तुलि निलो निज अंके ।
ढाली दिलो जल शुष्क अधरे ,
मन्त्र पड़िया दिलो शिरपरे”
ढाली दिलो देह आपनार करे शीत चंदनपंके ।।

झरीछे मूकूल, कूजिछे कोकिल, यामिनी जोछ्नामत्ता ।
“के एसेछो तुमि उगो दयामय”
शुधाईलो नारी, संन्यासी कय
“आजि रजनीते होयेछे समय, आसेछि बासवदत्ता !”

निर्जन रजनी में संन्यासी था चल रहा अकेला
तम-पथ पर रुक-रुककर रह-रह
जाने किसे ढूँढता था वह
क्या इतने दिन पर आयी थी उसकी परिणय-वेला !

लाँघ पूरी, प्राचीर, गया वह दंडी पुर के बाहर
रुग्ण-गात तरु तले जहाँ पर
पड़ी एक नारी थी निःस्वर
ठहर गया वह लगते ही उसका लघु स्पर्श चरण पर

स्याह हुई उस नारी के तन पर उभरे थे दाने
जान उसे चेचक से पीड़ित
स्पर्श विषाक्त समझकर जनहित
पुर के बाहर उसे किया था शंकित राजसभा ने

संन्यासी ने बैठ, अंक में रोग-तप्त सिर रखकर
दिया ढाल मुख में शीतल जल
परस भाल पर दिया सुकोमल
चंदनलेप किया निज कर से उस दुखिया के तन पर

फूल झड़ रहे थे, गाती थी कोयल मधु-रस-मत्ता
“कौन दयामय हो तुम,” सुनकर
बोला संन्यासी कोमल-स्वर
हुआ मिलन का समय आज, मैं आया वासवदत्ता