ravindranath:Hindi ke darpan me
रवीन्द्रनाथ और मैं
रवीन्द्रनाथ से हिन्दी की आधुनिक काव्य-धारा को बड़ी प्रेरणा मिली है । छायावाद और रहस्यवाद की काव्य-चेतना के मूल में उनका प्रभाव असंदिग्ध है । मैं भी सन् १९४० से ही, जब मेरे कविजीवन का प्रारम्भिक काल था, रवीन्द्रनाथ के काव्य से प्रेरणा ग्रहण करता रहा हूँ, कभी प्रतिद्वंदी बनकर, कभी प्रतिनिधि बनकर और कभी भक्त बनकर। कॉलेज के प्रारम्भिक दिनों में जब मेरी अवस्था मात्र १५-१६ वर्ष की थी, मित्रों में मैं अपने आप को रवीन्द्रनाथ का अभिशप्त राजकुमार कहता था ।
कभी-कभी मौज में बालसुलभ चपलता के कारण यह भी कह बैठता था, “भारत में तो इस समय दो ही कवि हैं; बंगला के रवीन्द्रनाथ और हिन्दी का मैं।” ऐसे ही भावों से प्रेरित होकर मैंने रवीन्द्रनाथ की रुग्णावस्था में ‘माँझी से’ कविता लिखी थी । यही नहीं, सन् १९३९-४१ में, जब मैं चाँदनी के गीत लिख रहा था, तो मैंने रवीन्द्रनाथ के गीतों को ही अपने आदर्श के रूप में ग्रहण किया था । बाद में जब सन् १९७० में मैंने हिन्दी ग़ज़लों का सूत्रपात् किया था तो वह नया प्रयोग करते समय मन ही मन यह निश्चय कर रखा था कि मेरी ग़ज़ल के प्रत्येक शेर में उतनी प्रेम-भावना का समावेश हो जाए जितना रवीन्द्रनाथ के एक गीत में मिलता है। इसी उच्च आदर्श और अहैतुकी कामना के कारण ही मैं अपने शेरों में प्रेमभावना की इतनी सफल अभिव्यक्ति करने में सफल हो सका ।
अब मैं अपने काव्य में समय-समय पर रवीन्द्रनाथ के प्रति अभिव्यक्त अपने मनोभावों का विवरण दूँगा । यह केवल मेरा ही नहीं, समस्त हिन्दी जगत् का, रवीन्द्रनाथ की १५०वीं जन्मतिथि पर उनके प्रति किया गया स्मृति-अर्चन भी होगा ।
रवीन्द्रनाथ के प्रति मेरी पहली कविता है, ‘माँझी से’ । मैंने रवीन्द्रनाथ की रुग्णावस्था में माँझी के रूपक द्वारा उन्हें संबोधित करके यह कविता लिखी थी । उस समय मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का इंटर द्वितीय वर्ष का छात्र था । संयोग से निरालाजी उन्हीं दिनों काशी आये थे । मेरी कविता को सुनकर वे गंभीर हो गये और बोले, “खड़े हो जाइए ।”
जब मैं खड़ा हो गया तो बोले, “रवीन्द्रनाथ की पुस्तकें एक के ऊपर एक रख दी जायँ तो आपके सर के ऊपर से निकल जायेंगी । आपने ऐसा कैसे लिख दिया !” मैं निरुत्तर मौन खड़ा रहा । इसके कुछ क्षणों के बाद निरालाजी मेरी पीठ थपथपाने के बाद ‘आप’ से ‘तुम’ पर आते हुए बोले, “लेकिन तुम्हारी कविता है बहुत सुन्दर !”
माँझी से
(रवीन्द्रनाथ के प्रति)
किसे पुकार रहा तू, माँझी ! धूमिल संध्या-वेला में
सागर का है तीर, खड़ा हूँ संगीहीन अकेला मैं
डूब चुका रवि अरुण, थकी लहरें, उदास है सांध्य पवन
तारक मणियों से ज्योतित नीलम-परियों के राजभवन
मधुबन पीछे लहराता है शांत मरुस्थल के उर में
आगे तरल जलधि-प्रांगण रोता विषाद-पूरित सुर में
काला महादेश जादू का कहीं बसा होगा उस ओर
बैठा-बैठा जहाँ खींचता है कोई किरणों की डोर
माँझी ! परिचित स्वामी तेरा युग-युग से वह जादूगर
जिसका कठिन नियन्त्रण झंझा में समुद्र की लहरों पर
. . .
यौवनमद में चूर मारता एकाकी डाँड़ें भरपूर
कितनी बार गया होगा तू लाखों कोस तीर से दूर !
जहाँ मार्ग के कंकड़ मोती, अलकापुर के पहुँच समीप
देखी होगी नीलम-घाटी, मणि-प्रवाल-रत्नों के द्वीप
वरुण देश की राजकुमारी तुझ पर मोहित हुई कभी
वे अल्हड़ साहस-गाथाएँ आज स्वप्न की बात सभी
शिथिल बाँह, पग काँप रहे, कंठ-स्वर रुँधने को आया
झुकी कमर, जड़-काष्ठ उँगलियाँ, जीर्ण त्वचा, जर्जर काया
समझा, जीवन की संध्या में आज पुकार रहा किसको
कौन तरुण वह, सौंप चला जाएगा यह नौका जिसको
आ जा, माँझी ! छाया-सा चुपचाप उतर निर्जन तट पर
इन लहरों से मैं खेलूँगा, अब तेरी नौका लेकर
बाद में मैं अपने मित्र राधेश्याम गुप्ता के साथ रवीन्द्रनाथ के दर्शन करने कलकत्ता जानेवाला था परन्तु वह संभव नहीं हो सका । एकाएक रवीन्द्रनाथ की मृत्यु का समाचार सुनकर मैं व्यथित हो गया । उसी मन:स्थिति में हृदयोद्गार निम्नलिखित कविता में फूट पड़े.
रवीन्द्रनाथ के प्रति
(उनके मृत्युदिवस की संध्या में लिखित )
भीड़ देवता के अंतिम दर्शन में
भक्त भवन-प्रांगण में क्रंदन करते
मलयानिल रोता फिरता निर्जन में
किस सुषमा के नंदन-वन में
अप्सरियों की छूम-छनन में
आज महाकवि ! तुम अपनी सोने की वीणा लेकर
हुए उत्तरित क्षण में
हँसती होंगी परियाँ
सुर, गन्धर्व-समाज, समुद किन्नरियाँ
आज इंद्र की भरी राजनगरी में
छुटती होंगी फूलों की फुलझड़ियाँ
आज तुम्हारी मधुमय स्वर-झंकार
स्वयं भारती मन्त्र-मुग्ध हो सुनती,
रहीं दिव-बधूगण आरती उतार
सरस्वती के वरद पुत्र तुम
चरणस्पर्श-सुख-रहित मैं कुसुम,
खडा रहा जो, द्विधा-द्वंद्व में, बंद हो गए द्वार
सन् ८० के आसपास की बात है । मैं रवीन्द्रनाथ की रचना ‘गान्धारीर आवेदन’ पढ़ते-पढ़ते अत्यंत भावमग्न हो गया । मैंने यह अनुभव किया कि सन् १९४१ में रवीन्द्रनाथ की रुग्णावस्था में उन्हें यह आश्वासन देकर कि मैं आपका स्थान ग्रहण कर लूँगा, मैंने बड़ी भूल की थी । मैं इस योग्य नहीं था । मेरी यही भावना निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त है —
‘हे कविता-रवि !
चाहे जितनी सुन्दर लगती थी तेरी छवि,
प्रभात के धुँधलके में मैं यही सोचता था
‘कभी तुझसे भी आगे निकल जाऊँगा !’
किन्तु अपराह्न में
जब मेरा अंग-अंग थककर चूर है,
लगता है,
तू अब भी मुझसे पहले जितनी ही दूर है !
इस कविता के बाद भी रवीन्द्रनाथ से अपनी तुलना करना मैंने नहीं छोड़ा और उन्हीं दिनों पुन: अपना मनोभाव दुहराया ।
कवीन्द्र रवींद्र सारी आयु
कविता के मेघ बरसाते रहे
जीवन-तरणी के भसान के क्षण भी
उनके ओठों पर गीत मँडराते रहे
अंतिम साँस तक वे रसभरे गीत गाते रहे
तब मैं ही भला अहेरी को आते देखकर
चुप कैसे हो जाऊँगा !
ज्यों-ज्यों तीर चुभता जायगा
और जोर-जोर से गाऊँगा
मन की पीड़ा को शब्दों में सजाऊँगा !
सन् १९८४-८५ के बाद मैंने सूर, तुलसी और कबीर की परम्परा में हिन्दी में भक्ति के गीत लिखना प्रारम्भ किया । सिनेमा के गीत की तरह मेरे गीत क्षणगीत न हों, इसके लिए उनका सहृदय सुधी समाज द्वारा स्वीकृत किया जाना आवश्यक था । त्यागराज की कीर्तियाँ और रवीन्द्रनाथ के गीतों की तरह उनमें भाव-संपदा, सार्थक अनुभूति तथा भाषा की सरलता होने से ही यह संभव था । मेरी समझ में उपर्युक्त बातें उनमें थीं, प्रतीक्षा थी केवल सुधी गायकों की । अत: एक गीत में इसके लिए मैंने सुविज्ञ गायकों का आवाहन किया ।
मेरे गीत तुम्हारा स्वर हो
क्या फिर मेरे शब्दों की भी धूम न नगर-नगर हो !
युग से मौन पड़ी जो वीणा
रागरहित धूसर श्रीहीना
तुम चाहो तो तान नवीना
उससे क्या न मुखर हो !
हों रवींद्र या त्यागराज हों
बिना सुरों के व्यर्थ साज हों
गायक जब सहृदय समाज हों
गायन तभी अमर हो
मेरे गीत तुम्हारा स्वर हो
क्या फिर मेरे शब्दों की भी धूम न नगर-नगर हो !
प्रशंसा के जल से सिंचित होते रहने से ही प्रतिभा का पौधा लहलहाता रहता है और स्रजन को भी बल मिलता है । इतना कुछ लिखने के बाद भी मेरे हृदय में यह कलक बनी रही कि रवीन्द्रनाथ के समान यदि मैं भी बंगाल जैसे भावुक प्रदेश में जन्म लेता तो क्या मुझे भी उनके जैसी लोकप्रियता नहीं मिलती !
मैंने ३६५ गज़लें, जो प्रतिदिन एक ग़ज़ल के हिसाब से पूरे वर्षभर गाई जा सके और एक हज़ार से ऊपर गीत, जिन्हें कई वर्ष तक दुहराए बिना देवमंदिर में या रसिकमंडली में गाकर लाभ उठाया जा सके, इसी प्रत्याशा में लिखे थे ।
निम्नलिखित गीत में यद्यपि रवीन्द्रनाथ का नाम एक ही स्थान पर आया है परन्तु पूरा गीत उन्हींको ध्यान में रखकर लिखा गया है –
कवि के मोहक वेश में
जन्म लिया होता यदि मैंने भावुक बंगप्रदेश में
. . .
जब मंदिर में जुड़े भक्तजन झाँझ-मृदंग बजाते
गा-गाकर निज इष्टदेव के चरित नाचते जाते
जब वे अपनी व्यथा सुनाते रवि ठाकुर के स्वर में
देवालय हिचकोले खाता करुणा के सागर में
तब मेरे भी स्वर लहराते उनके भावोन्मेष में
कवि के मोहक वेश में
जन्म लिया होता यदि मैंने भावुक बंग प्रदेश में !
सन् २००० के नवम्बर तक मुझे अपने गीतों के सृजन से पूरा संतोष हो गया । स्थान-स्थान पर सहृदय समाज में उनका गायन होने लगा और काव्य-मर्मज्ञों ने भी उन्हें गले लगा लिया, इससे प्रेरित होकर मैंने निम्लिखित गीत लिखा —
हे रवीन्द्रनाथ !
मैं भी चल सकूँगा अब तुम्हारे साथ-साथ
तुमने ज्यों गरल-दाह झेला
बदले में सुधाघट उँड़ेला
मैं भी तपता रहा अकेला
लिखते क्षण काँपे नहीं हाथ !
आयेगी मेरी भी बारी
जग को लगेगी कभी प्यारी
काँटों की झेल व्यथा भारी
मैंने जो माला दी गाँथ
गाता प्रेम-भक्ति के स्वरों में
पाऊँगा प्रतिष्ठा अमरों में
गूँजेगी तुम-सी ही घरों में
स्वरधारा यह भी पुण्यपाथ
हे रवीन्द्रनाथ !
मैं भी चल सकूँगा अब तुम्हारे साथ-साथ
इधर सन् २०१० में पुन: मेरी भावना ने जोर मारा और यद्यपि रवीन्द्रनाथ की महत्ता अस्वीकार करने में मैंने अपनी असमर्थता घोषित की है फिर भी निम्नलिखित गीत में यह अनुरोध गायक-समाज से कर ही दिया है कि वे अब मेरे गीतों को भी संगीतबद्ध करें और आनंद उठायें । मेरा यह नवीनतम गीत जो सन् २०१० में लिखा गया है, इसी भाव को अभिव्यक्त करता है –
नभ पर ऊँचा आसन मेरा
पर कुछ कवियों के तप सम्मुख झुक जाता इन्द्रासन मेरा
कालिदास की स्मृति धो डालूँ
भक्त बता तुलसी को टालूँ
पर रवींद्र से दृष्टि फिरा लूँ
कैसे यह माने मन मेरा !
पढ़े, सुने, गाये जग इनको
पर कब तक ढोए इस ऋण को !
सुने विविध रूपों में जिनको
नव सुर हैं, नव गायन मेरा
कितनी भी हो अमल धवलता
यदपि काल ग्रसकर ही टलता
पर मुझपर कुछ जोर न चलता
है कवित्व नित नूतन मेरा
नभ पर ऊँचा आसन मेरा
पर कुछ कवियों के तप सम्मुख झुक जाता इन्द्रासन मेरा
उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायगा कि सन् १९४१ से लेकर सन् २०१० तक किसी न किसी रूप में रवीन्द्रनाथ मुझ पर हावी रहे हैं । सन् १९४१ में ‘माँझी से’ कविता से मैंने जो आत्मविश्वास प्रकट किया था वही प्रकारांतर से ८६ वर्ष की आयु में पुन: नए गीत में व्यक्त हुआ है । इस बार मैंने सहृदय-समाज से निवेदन किया है कि वे उनके और उनके जैसे अन्य पुराने कवियों की तरह मुझे भी अपनाएँ ।