roop ki dhoop

दोहा-शतदल

1
अब तो जीवन बन गया, सरस्वती का दास
खीझे रमा न सोच है, रीझे रमा-निवास

2
रस का वाहन मात्र मैं, ज्यों कूएँ की डोर
लिखनेवाला और है, पढ़नेवाला और

3
क्या न करें, क्या-क्या करें, क्या लें, क्या दें छोड़
जीने के हित चाहिए, जीवन लाख-करोड़

4
बाँझ भली, विधवा भली, दुख देखे संसार
प्रिय के सँग प्यासी रहे, यह कैसा श्रृंगार!

5
अंक-अंक प्रति धर दिये, अश्रु-बिदु शत गोल
कविता मेरी बन गयी, कोटिगुनी अनमोल

6
तृषा हरे न भरे उदर, करे न शीतल दाह
वृथा गरजता! सिंधु, तू, लेकर सलिल अथाह

7
वही नगर, हम-तुम वही, वही समय मधुमास
आँखों का फिरना हुआ, लाखों कोस प्रवास

8
प्रिये। तुम्हारे रूप में, बड़ा विरोधाभास
पास रहूँ तो दूर हूँ, दूर रहूँ तो पास

9
कहा, सुना, रूठा, मना, निज में ही प्रतियाम
आधा मन राधा बना, आधा मन घनश्याम

10
दिन बिछुड़े, निशि को मिले, निशि बिछुड़े जो, प्रात
हम-तुम बिछुड़े साँझ के, दिन को मिले न रात

11
यही कामना बस प्रिये, सहला दो पल पाँख
सुख से आँखें मूँद लूँ, भर आँखों में आँख

12
जाने क्‍यों सिहरी, डरी, भरी फुरहरी देह
पहली दृष्टि सनेह की, (कि) पावस पहला मेंह।

13
गिरी लाज, पलकें उठीं, चली भौंह कर घात
उनके मुँह पर आ गयी, मेरे मन की बात

14
शलभ जला प्रिय-अंक में, तुम उससे भी क्रूर
लगी रही लौ एक-सी, पास रहूँ या दूर

15
तरुणी तन-छवि-दीप का, प्रिय न किसे सुख-संग |
उर से लग ज्वाला पिये, प्रेमी एक पतंग

16
गिरे, उठे, उठ-उठ गिरे, मरे, जी गये प्राण
सीधी बरछी-सी बिँधी, उर तिरछी मुसकान

17
नयनों में तिरती रही, फिरी अधर के बीच
खुली न कृष्णा-चीर-छवि, थकी भुजायें खींच

18
अनजाने पट के निकट, अटक गया मन काँप
पूर्व-जन्म-स्मृति-सी, प्रिये! मिली मुझे तुम आप

19
तनु-यौवन-पानिप चढ़े, बढ़े विलोचन-मीन
कढ़े उरोज-सरोज, कटि कटी तटी-सी क्षीण

20
उर-चितवन-घन स्नेहमय, बाहर झरझर मेंह
दुहरे रस में भीगती, विरह तपायी देह

21
ज्यों-ज्यों आता पास है, प्रिय का प्रात बिछोह
ढीली होती जा रही, आप हठीली भौंह

22
दर्शन का हीं सुख रहा छुए अनछुआ रूप
ज्यों पहले शरदन्ह की, कोमल, उजली धूप

23
कैसे भर लूँ प्राण में, तनु-सुषमा सुकुमार
दीपक की-सी जोत यह, पानी की-सी धार

24
नहीं-नहीं, अच्छी नहीं, रस में विष की घात
इतने मीठे अधर से, इतनी कड़वी बात!

25
छोड़ उसाँसें, मोड़ मुख, भ्रू मरोड़, तन तोड़
उठी उनींदे दीप-से नयन नयन से जोड़

26
श्याम अलक में यों दिपी, गौर देह द्युति-रेख
सावन की बदली झुकी, ज्यों कदली-तरु देख

27
अलस खुली, पय की धुली, कनक-तुली-सी देह
उगती धूप हिमांत की, (कि) पावस पहला मेंह।

28
आँखों में अँटता नहीं, प्रिये! तुम्हारा रूप
रोम-रोम में लूँ रमा, ज्यों जाड़े की धूप

29
अंत-सिद्धि पायी जिसे, भुजपाशों में खींच
देह वही अंतर बनी, युग अंतर के बीच

30
आओ कसकर बाँध लूँ, तुम्हें प्राण के साथ
प्रिय! न कहीं उस जन्म में, पड़ो पराये हाथ

31
नहों बिछुड़ने के सिवा, प्रिय! यदि अन्य उपाय
हम देखें, जाओ न तुम, तुम देखो, हम जायँ

32
हँस तिरछी, पलकें झुका, दृष्टि डोर-सी खींच
‘फँसा मीन-मन ले गयी, बंकिम भौंहों बीच

33
जगूँ न अंजित नयन बन, रँगूँ न अधर सुरंग
अंग-अंग से जा लगूँ, अंगराग के संग

34
कढ़ी माँग-सी रवि-किरण, छू पदाग्र-नख-भाग
जागो, जावक से कहीं, पावक उठे न जाग

35
कैसे दुग्ध-उफान-सी, छू लूँ छवि की बाढ़
हल्का दर्शन ही जहाँ, आलिंगन अति गाढ़

36
नख से शिख जो कंटकित, पड़ते दृष्टि हठातू
उस मृदुला से मिलन की, कौन चलाये बात!

37
एक झिझक, भय एक-से, मान-रोष-हठ एक
मेरे दृग-दर्पण हँसे, हँसी तुम्हारी देख

38
तिरछे दृग, भौंहें, चिबुक, ग्रीवा, कटि, कच लेख
सीधी वह उर में धँसी, हँस तिरछी ही देख

39
मन अड़ता छवि-छाँह में, तन बढ़ता पथ बीच
जैसे ग्राह गजेंद्र को, लिये जा रहा खींच

40
कच सँभाल, अंचल उलट, पलट दृष्टि, मुँह मोड़
जाते-जाते ले गयी, हृदय सुमन-सा तोड़

41
मिले कहीं उस जन्म में, हम किशोर-वय, प्राण!
भौंह नचा, पलकें झुका, लोगी झट पहचान?

42
अंत-सेज पर आ, प्रिये। सहला देना गात
चिर-जीवन बन जायगी, महामरण की रात

43
पर-परिणीता तुम, प्रिये! पर-गृह मिली हठात्‌
सकुच, सिहर, मुड़, लौट द्रुत, फिर हो लोगी साथ!

44
एक वयस, रुचि एक रँग-रूप एक गुण-दोष
एक रेख सिंदूर से, कोसों दूर पड़ोस

45
कैसे मन माने, सतत पगध्वनि पड़ती कान
दर्शन को तरसा करें, बस पड़ोस में प्राण!

46
साँझ सवेरे ही मिलन, छिटपुट-सी दो बात
हम-तुम ऐसे ही मिले, जैसे दिन से रात

47
अधराधर दलमल, उबल, लिपटी भुजा लपेट
नित के मिलने से भली, यही छमाही भेंट

48
हुआ वही जो हो गया, कल की जानें राम
निशि की छूटी कामिनी, दिन का छूटा काम

49
प्रियें। विकल अहि-सेज पर, हरि से विरही प्राण
पद-जावक-रेखा धरो उर, भृगु-लता समान

50
कब आयी, कैसे गयी, जान न पाया ठीक
नयन-निकष पर कस गयी, कंचन की-सी लीक

51
अब आँसू कैसे थमें, मिलकर दिया बिछोह
दृग में काँटे बो गयी, वही कँटीली भौंह

52
यह जो आँसू की झड़ी, आँखों से अविराम
इस बाला के हृदय में, छिपे कहीं घनश्याम

53
इसी कँटीली राह से, प्रिय आयेंगे प्रात
आँखों में ही काट दी, कज्जल-गिरि-सी रात

54
विरह निशागम, प्रिय-गमन, चकवी उठी बिसूर
प्रात मिलन हों या न हो, अबकी जाना दूर

55
लाख खिली हो चाँदनी, मिटे न मन की चाह
रात अमावस की भली, जो प्रियतम गलबाँह

56
झिलमिल पट पँचरँग पहन, कौतुक करती लाख
यों तरुणी वह आँख में, ज्यों वरुणी में आँख

57
बढ़ी व्यथा, चिंता चढ़ी, कढ़ी न काढ़े लाख
उड़ आ बैठी आँख में, श्याम भ्रमर-सी आँख

58
गये न पहले-से नयन, लिपट दृष्टि से लोल
मिले, खिले, सकुचे, झुके, उठे, बढ़े बेबोल

59
नयन पूर्व-अभ्यास-वश, देख उठाते हाथ
मिले, खिले, रोये, हँसे, मुड़े, गिर पड़े साथ

60
कुसुम-छड़ी-सी हो खड़ी, सुनते मेरा नाम
समुद मुड़ी, मुड़ रो पड़ी, बढ़ी न वामा, वाम

61
सकुच तनिक, तिरछी झुकी, कर कपाट-से जोड़
सलिल-वृष्टि करती गयी, दृष्टि दृष्टि में छोड़

62
देह सूख काँटा हुई, पीले पड़े कपोल
बौरायी मधुत्रतु-वधू, सुनकर पिक के बोल

63
नींद न आती रात को, दिवस न लगती भूख
एक सलिल को धान-सी, गयी विरह में सूख

64
सिहर खड़ी प्रिय-पार्श्व में, जलमय पलकें मींच
पावक-रेखा-सी गयी, जावक-रेखा खींच

65
पल-पल अधिक डरावने, विरह-व्यथा के लेख
प्राण सूखते जा रहे, रात भीगती देख

66
मधुर मिलन-सा ही, प्रिये! मुझे विरह भी क्रूर
तन सुगंध से दूर है, मन सुगंध से चूर

67
वन की घन से, नयन की आँसू से बुझ जाय
मन की लगी न बुझ सके, करो करोड़ उपाय

68
रोने भी देता नहीं, मुझे यही संकोच
कहीं न मेरा दुख बने, प्रिय के मन का सोच

69
मिलन-विरह, दोनों मुझे, ज्यों प्रिय की दो बाँह
यह चंदा की चाँदनी, वह चंदा की छाँह

70
दृग झँपना बचपन बना, बिछुड़ न देखा मेल
प्रेम हुआ अपना, प्रिये! सपने का-सा खेल

71
झिझक, लाज, परिचय प्रथम, पुलकन, पहली प्रीत
कभी याद आता, प्रिये! बालापन का मीत?

72
हृदय लिया, अच्छा किया, मसल न देना फेंक
तुमको ऐसे लाख हैं, हमको ऐसा एक

73
भला किया, फेरी मुझे, चटपट मेरी याद
ऋण चढ़ जाता प्रेम का, इतने दिन के बाद

74
पहना दी चलते समय, तुमने जो मुस्कान
रोम-रोम ज्वाला, प्रिये! वह माला अम्लान

75
खिले नयन, आनन झुका, पड़ी भ्रुवों में गाँठ
मन उड़ता, सीखा जहाँ प्रथम प्रणय का पाठ

76
वधू बना जो खेल में, बरबस जोड़ी प्रीत
जीवन-हार बनी, प्रिये! वह बचपन की जीत

77
स्मृति कौंधी, लोचन झरें, हरे हुये उर-शूल
उड़ी हंसिनी-सी हँसी, समझ कुदिन अनुकूल

78
बढ़ी विरह-ज्वाला बुझी तिल भर अधर तृषा न
ज्यों-ज्यों बरसे श्याम-घन, त्यों-त्यों सूखे प्राण

79
चपला की भौंहें तनीं, चली सनसनी वात
बनी अमावस से घनी, यह पावस की रात

80
सिहर चली मधु-सेज पर, काजल-रेखा खींच
तन फूलों के बीच है, मन शूलों के बीच

81
छठे-छमाहे, मास, दिन, घड़ी, एक पल, प्राण
कभी कसकती प्राण में, वह भूली पहचान

82
मिटी तुम्हारे हृदय से, ऐसे मेरी याद
जैसे सपना भोर का, दिन उगने के बाद

83
सहज सुलभ सब को, सतत, इसका स्निग्ध प्रकाश
शलभ! वृथा बलिदान यह, दीपशिखा के पास

84
छवि-दर्शन से कब मिटी, प्रिय-दर्शन की पीर !
चित-चातक को चाहिए स्वाति, न सुरसरि-नीर

85
छूती खुले गवाक्ष से, ज्योत्स्ना पद सुकुमार
करता ज्यों छवि-याचना, हिमकर हाथ पसार

86
साँस-साँस आशाभरी, रोम-रोम में प्यास
पग-पग पर मन टूटता, लगते फागुन मास

87
इस भव-पारावार का, डलटा सब व्यवहार
बहे, रहे; डूबे, तिरे; फिरे, गये उस पार

1943-57