roop ki dhoop

अँधेरा

अँधेरा फैलता है भूमि पर, नभ पर तलातल में
अँधेरा बढ़ रहा है छीनता मणियाँ दिशाओं की
अँधेरा छा गया है प्राण, मन पर, चेतना पर भी
अँधेरा सब कहीं, ज्यों यवनिका शत-शत निशाओं की

अँधेरे से भरा है शून्य का उलटा हुआ प्याला
अँधेरा क्षुद्र अणु में भी भुजग-सा कुंडली मारे
अँधेरा है जहाँ तक दृष्टि का विस्तार जाता है
जहाँ तक दूर नभ में झिलमिलाते अनगिनत तारे

निमिष भी देख जिसको बँध सके आशा उजाले की
उमड़ती श्याम लहरों में किरण ऐसी नहीं कोई
तिमिर को चीरती निकले किरण का थाल ले कर में
उदय-गिरि की हिरण्या आज वह जाने कहाँ खोई!

धरा को ग्रस्त कर बढ़ता भयानक भीम अजगर-सा
अँधेरा आज लगता है कि रवि को लील जायेगा
सिहरती, टिमटिमाती चेतना की लौ बुझी जाती
मिली जो शून्य में तो विश्व कैसे ज्योति पायेगा!

सहारा दो मुझे मैं इस तिमिर के पार जाऊँगा
जहाँ से ज्योति की परियाँ विभा के फूल लाती हैं
सतत मंथित जलधि से चिर-सुधा के स्रोत झरते हैं
अजन्मा चेतनायें रूप-गुण-आकार पाती हैं

जहाँ से मृत्यु की घाटी अँधेरे द्वार-सी दिखती
सृजन के भग्न द्वीपों को मिलाती ज्योति-सागर में
धरा यह दीखती चिर-घूर्णिता मधु-मक्षिका जैसे
पसारे पंख आशा के उड़ी चिर-शून्य अंबर में

1962