sau gulab khile

हमेशा दूर ही रहते हैं आप, क्या कहिए !
हमें भी आप जो कहते हैं– ‘आप’, क्या कहिए !

हमारी याद कब आयी कि जब हमीं न रहे
सुरों में प्यार के बहते हैं आप, क्या कहिए !

कभी तो यह न हुआ आके दो घड़ी मिल जायँ
ख़बर ही पूछते रहते हैं आप, क्या कहिए !

खड़ी थी नींव ही आँसू की धार पर जिनकी
महल वे काँच के ढहते हैं आप, क्या कहिए !

कहा कि अब न सहेंगे तो हँसके बोल उठे–
‘सही है, ख़ूब है, सहते हैं आप, क्या कहिए !’

रहें जो चुप तो वे देते हैं छेड़ — ‘चुप क्यों हैं !’
कहें तो बस यही कहते हैं– ‘आप क्या कहिए !’

घड़ी-घड़ी में बदलता है बाग़ क्या-क्या रंग !
गुलाब ! अपने ही रंगों को आप क्या कहिए !