sau gulab khile

अगर समझो तो मैं ही सब कहीं हूँ
नहीं समझो तो वैसे कुछ नहीं हूँ

कोई हर साँस में आवाज़ देता–
‘यहीं हूँ मैं, यहीं हूँ मैं, यहीं हूँ’

उतरती आ रहीं परछाइयाँ-सी
कोई ढूँढ़ो तो इनमें – ‘मैं कहीं हूँ’

कभी जो याद आये, पूछ लेना
लिये मुट्ठी में दिल, अब भी वहीं हूँ !

गुलाब ! इनसे हरा है ज़ख्म दिल का
मैं काँटों को कभी भूला नहीं हूँ