seepi rachit ret

अनचाहत की चाह

अनचाहत को चाह, नहीं यह राह कठिन कटती काटे
आशा की मृगतृष्णा पर मैं कब तक चलता चलूँ, कहो!
ज्यों की त्यों सामने पड़ी है अब भी जीवन की घाटी,
डूब रहा उत्साह-सूर्य अस्ताचल में लज्जत-मुख हो।

मेरे जीवन के साथी! क्‍यों तुम मन के साथी न हुए
जिसको मन की बातें कहता, पावस ऋतु-सा यह जीवन
मैं चुपचाप बिताता गृह में, बिना अन्य कुछ कार्य छुए,
कोलाहल से दूर, रात-दिन करता ललित-कला-साधन।

यदि गृह आते मित्र वेश में मेरे छिपे प्रवंचक ही,
यदि यश से अपयश बढ़ जाता, यदि पाता असफलतायें
भूल कभी पग धरते जग में, तो भी व्याकुल रंच नही
मैं होता, मुड़ तुरत तुम्हारी ओर बिछा देता बाँहे।

देश-काल से परे मुझे तब दूर लिये जाती तुम खींच,
अमर दार्शनिक भावलोक में या गत इतिहासों के बीच।

1941