seepi rachit ret
तुम्हें देखते ही
तुम्हें देखते ही मन में सिहरन-सी होने लगती है,
रक्त नसों में दौड़ इकठ्ठा हो जाता है गालों पर
मोम आँच से ज्यों, प्राणों में सोयी पीड़ा जगती है,
कोई जैसे हृदय मसल देता है मुट्ठी में लेकर।
तुम आती जैसे पतझड़ के पत्तों पर रख चरण सकुच
मलयानिल आकर उपवन में क्यारी-क्यारी से होता
मुग्ध ठिठक जाता है अपनी प्रिय कलिका के पास पहुँच।
प्रिय! उस कलिका-सा ही मैं तन-मन की सब सुध-बुध खोता।
लज्जानत पलकें उठतीं धीरे-धीरे शशि मुख की ओर,
स्वत: जाल में आकर ज्यों मछली नादान फँस रही हो,
तुम्हें देख फिर झुक जातीं, मैं बैठा रहता प्रेम-विभोर,
प्रिये! चली जाने पर भी लगता तुम खड़ी हँस रही हो।
पा तुमको अपने सम्मुख मैं अपने में खो जाता हूँ,
प्रेम यही है यदि तो अपना स्वप्न आज सच पाता हूँ।
1941