seepi rachit ret

परवशता

अब स्वभाव हो गया रात-दिन इधर-उधर लुककर, छिपकर
जब वह सुंदर मुख दिखलायी दे, देखना, और जब वह
दिख न सके, मानस-पट पर सपनों की ले तूलिका सुघर
चित्र खींचते रहना उसका उल्टा-सीधा किसी तरह।

मेरी प्रेम कथा न सुनो, मैं लेकर यह कविता का छल
अपनी व्यथा कह रहा हूँ उस कोयल-सा अपने मन से
ग्रीष्म मास की दोपहरी में निर्जन घाटी का अंचल
जो क्षण-क्षण मुखरित कर देती कुहु-कुह् के गायन से।

परवशता में साँस घुटी तो सुरा न पी, कविता पढ़ ली,
मेरे मन यह रोग तुम्हारा राग यहाँ क्‍यों कहलाता!
जिनसे मिलन असंभव, स्वर में यदि उनकी प्रतिमा गढ़ ली,
क्या उससे, हे विश्व! तुम्हारा बनता और बिगड़ जाता!

मैं तो अपने अंतर की परवशता गीतों में खोता,
जाने क्‍यों पढ़-पढ़कर उनको भावुक जग हँसता-रोता।

1941