seepi rachit ret
बातचीत
मैं न कभी सुनता, वे क्या कहते हैं, कानों के अंदर
ध्वनियाँ बजतीं, वेणु-कुंज ज्यों खा मलयानिल का झोंका।
मैं तो उन पतले-पतले होठों का हिलना-डुलना भर
मुग्ध बना देखा करता उठना-गिरना उन भौंहों का।
कभी न मेरे जी में आता मैं भी कोई उत्तर दूँ,
यही सोचता रहता, ‘ चंचल, मधु-गुंजित, उच्छृंखल
अधर-मधुप-बालों को अधर-मृणालों में नीरव कर दूँ,
पलकों की ढालों से ढँक दूँ भालों-सी ये भौंह युगल,
पर मैं मुग्ध देखता रहता बरबस रोक हृदय के भाव
मूक बना सुनता रहता उन मृदु शब्दों की झंकोरें,
बेसमझे भी, सतत निकलते जो उस मुख से बिना प्रभाव,
एक-एक कर निकल रहे हों सांध्य गगन से ज्यों तारे।
उसकी वाणी की वीणा में प्राणों के स्वर भर देता,
वह तो अधरों से कहती, मैं नयनों से उत्तर देता।
1941