seepi rachit ret

रहस्यमयी

यदि मैं पाता देख, छिपा क्या इस नीरवता के उस पार,
इस क्षण-क्षण उठने-गिरने वाले अंतर में भेदभरे
कैसे भाव भरे हैं मेरे प्रति! क्या परिचय के अविकार?
या सनेह के? या श्रद्धा के? या तटस्थता मौन धरे?

या वह कोमल किरण प्रेम की, धिरक हृदय की लहरों पर,
मादक कलरव भरती उनमें, पर व्यवहार-कला-रंजित,
मुझ पर रहतीं झुकी युगल काली आँखों के पहरों पर
आप सजग हँसती तुम, जिससे अंतर्दशा न हो व्यंजित।

आह ! तनिक भी सूत्र मुझे मिलता कि अकेले में तुम, प्राण!
देवी-मंदिर से पवित्र निज चित्र-अजिर में बैठी मौन,
मेरे तुच्छ विषय में सोचा करती हो क्या मूर्ति-समान
स्वप्नलीन हो, भाग्य न यदि यह मेरा, भाग्यवान वह कौन?

यद्यपि सम्मुख बैठी हो तुम नीरव हँसती छाया-सी;
पर शाश्वत दुर्बोध बनी मेरे हित विभु की माया-सी।

1941