seepi rachit ret

आवश्यकता थी क्‍या जीवन की

बढ़ो, सिंधु की प्रलय-लहरियो! उठो गगन के झंझावात !
उन्नत, भवन ढाह देनेवाले, ओ भूकंपो! आओ,
झरो, ऊष्ण खौलते हुए ज्वालामुखियों के अनल-प्रपात!
अरी बिजलियो! तड़प अँधेरी निशि में पत्थर बरसाओ।

मन! तू आज हजारों योजन धरती के अंतस्तल में
धँसकर वासुकि के फण की ज्वाला में अपनी आग बुझा,
वह इसके सम्मुख हिम-सी है, या उड़कर नभमंडल में,
प्यासे प्राणों को स्वर्गों के अमृत-कुंड का मार्ग सुझा।

निष्ठुर भाग्य! प्रीति-दुख के गायन न लिखे जाते कवि से,
तप्त लौह-उर पर कर दो आघात, चूर्ण वह हो जाये
रेणु-सदृश, छूटें स्वर-अंगारे, ज्यों एक साथ रवि से
टूंट रहे हों कोटि ज्वलित भू-मंडल, हृदय शांति पाये।

विकल प्रेम! रो रहे प्राण, यह व्यथा असह्य हुई मन की,
आह ! तुम्हीं बतला दो, आवश्यकता थी क्‍या जीवन कौ।

1941