seepi rachit ret

शाश्वत सौंदर्य

एक फूल के कुम्हलाते ही खिल उठते प्रसून लाखों
उससे भी सुंदर, जाता जब उजड़ एक जनपद या ग्राम,
कितने नये नगर बसते, देखा करते अपनी आँखों
प्रतिदिन हम यह सुंदरता का निज स्वरूप-रक्षण का काम।

ज्वाला की लपटों में जब तूने पद्मिनी झोंक डाली,
निठुर भाग्य! वह कमल कली-सी, अरे ! रूप के तस्कर काल!
दीमक, छवि की पुस्तक के! वह पाटल-से मुखड़ेवाली
नूरजहाँ भी झुका चली जब तेरे पद-चिन्हों पर भाल।

तब पत्तों में छिपकर हँसती थीं नन्‍्हीं कलियाँ कितनी
आनेवाली सुंदरतायें, युग-युग से चलता आता
यह क्रम, कैसे, काल! तुम्हारी विजय कहें अणु भी जितनी!
दोष नष्ट करने का दें हम तुमको, छवि के निर्माता!

रूपसि! तुमसे नित्य यही सुषमा ले मिला, करूँगा मैं,
रात अँधेरी में पाटल-सा युग-युग खिला करूँगा मैं।

1947