seepi rachit ret

सुख-दुख

जीवन सुखमय कर सकती हैं एक फूल की मधुर सुगंध,
एक गीत कोयल का इसमें सुंदरता भर सकता है;
क्यों उपवन में भी काँटों में फँसे विवश रोते जन अंध
जब कि एक कलिका का खिलना मुग्ध उन्हें कर सकता है ?

पर विपरात सदा तेरी गति है, मानवी प्रकृति! जग में,
फूल खिले हों, कूक रही हो पिक, बहता हो मलय समीर,
दुख का कंटक एक कहीं फिर भी यदि चुभ जाये पग में,
बनते सब सुख व्यर्थ, निमिष में हो उठते तन-प्राण अधीर।

रोनेवाले! जोड़ लगाया कभी भला निज सुख-दुख का
देख, अभागे! तुझे मिले वरदान अधिक अथवा अभिशाप ?
है कृतज्ञता-भागी तुझसे वह अदृश्य? या सब सुख का
दाता भी है रोपपात्र ही, दे इतना कितना संताप!

सुख की वाणी मौन, न उसकी कहता कोई कभी कथा,
रो उठते हैं एक साथ सब जहाँ तनिक भी हुई व्यथा।

1945