seepi rachit ret
सीपी-रचित रेत
एक गाँव में रहते हम-तुम दोनों बचपन से ही, प्राण!
तुम तितलियाँ पकड़ने के मिस आती मेरे उपबन में
नित मध्याह्न समय, दिन छिपने के पहले करती प्रस्थान
निज गृह को, आतुर गति, लघु पद रखती, सहमी-सी मन में।
शैशव की रेखा का अतिक्रमण करते ही पग-पग पर
अगणित सीमायें बढ़तीं, तब आँख बचाकर लोगों की
मिलते हम-तुम प्रति पखवारे, और एक दिन मिल-जुलकर
तय करते, औषधि विवाह ही एक लक्ष अभियोगों की।
या सागर के तीर, श्वेत परियों-सी फिर-फिर, फहर-फहर
जहाँ थिरकती लहरें, हम दोनों के दो सुखमय परिवार
रहते निकट-निकट, हम सीपी-रचित रेत पर चार पहर
प्रतिदिन के, आ, खेल, बिताते सपने-सा शैशव सुकुमार।
और एक दिन यौवन के प्रभात में क्षुद्र तरी पर चढ़,
तुम्हें साथ ले चल पड़ता मैं, जय करने समुद्र के गढ़।
1941