seepi rachit ret

सुंदरता और कविता

कितने दिन जी पाता है तारा बसंत की आँखों का
मुग्ध धिरकता हुआ कोकिला के गीतों के पलने पर!
सुरधनुषी वर्णोवाली तितली की कोमल पाँखों का
रंग, भला, टिकता कितने दिन ग्रीष्म पवन के चलने पर!

अयुत करों से तम-तमाल के कुंज काल देता झकझोर,
प्रातः:काल न रहते शत-शत नखत-पत्र नभ-शाखों पर।
सुंदर अन्य वस्तुएँ लाखों प्रतिदिन यों जातीं किस ओर
अपनी क्षणभंगुर सुषमा की चमक छोड़कर आँखों पर?

आह! तुम्हारी सुंदता भी दीपशिखा-सी चार घड़ी
खेल शलभ-बालों के सँग, प्रातःसमीर के झोंकों से
लीन त्वरित हो जायेगी, रेखा-सी नभ-र-मध्य पड़ी,
लिखी शून्य में काल-लेखनी-सी विद्युत की नोकों से।

गीत-स्फटिक-मंजूषा में यदि मैं न उसे कर दूँगा बंद,
जो न खुलेगी कभी, न जिसके अंदर की छवि होगी मंद।

1941