shabdon se pare

दुख सहने को बना मनुज क्‍यों सुख का हो अभिलाषी!
देख न सकते हँसना उसका, कभी व्योम के वासी

जन्म लिया जिस दिन धरती पर रोना सीख चुका था
रोते-रोते कभी क्षणिक सुख की पा भीख, रुका था
रोते बड़ा हुआ, यौवन भर प्रिया-चरण धर रोया
आयी मृत्यु, रुलाता सब को लंबी ताने सोया

बड़े कष्ट से छुटी कंठ में लगी साँस की फाँसी
चिता-द्वार से घर को लौटा युग से विकल प्रवासी

ढूँढ़ा करते ग्रह, ग्रस लेने का बस एक बहाना
हँसे राम राज्याभिषेक के समय, पड़ा वन जाना
आयु बिलखती बिता, सती सीता क्षण भर मुस्कायी
फिर वनवास मिला, घर छूटा, शांति मरे ही पायी

विजयी भी पांडव ने देखी राज्य-श्री विधवा-सी
दुगुनी हुई और पहले से मन की गहन उदासी

चपला चपल, मेघ के आँसू आठों पहर बरसते
नहीं निमिष से अधिक किसीको मैंने देखा हँसते
जाने कब, किस दिशि से नभ के, वज्र गिरे मस्तक पर
हँसना पाप समझकर ज्ञानी हँसते सँभल-सँभलकर

जीवन तममय निशा, सुखाशा जुगनू की छाया-सी
और उसी के हित निशि-वासर फिरती काया-दासी

चिर-चंचल प्रवाह जीवन का लिये बहा जाता है
ज्ञात न इस घनघोर तिमिर में कौन, कहाँ जाता है
सब का मिलन एक मरघट की सीमा पर हो पाता
किसका स्नेह, गेह, सुत, दारा! किसका, किससे नाता!

दुख के कारण-रूप सभी ये निज-निज स्वार्थ-विलासी
निज मन की कल्पित कारा में तड़प रहा अविनाशी
दुख सहने को बना मनुज क्‍यों सुख का हो अभिलाषी
देख न सकते हँसना उसका, कभी व्योम के वासी

1948