tilak kare raghuveer
हाथ से छूट रही है वीणा
जिसके सुर ने कभी देवताओं का मन भी छीना
बस न उँगलियों पर अब चलता
कोई नव सरगम न निकलता
प्राणों में भर रही विकलता
तान हो रही क्षीणा
पर चिंता क्या! सुर ये मेरे
लाँघ चुके अम्बर के घेरे अंबर
प्रेम पा सके मन का तेरे
हटा आवरण झीना
हाथ से छूट रही है वीणा
जिसके सुर ने कभी देवताओं का मन भी छीना