tujhe paya apne ko kho kar

जीते न्याय, प्रार्थना हारी
विनय यही, प्रभु! झेल सकूँ दुख, जब हो मेरी बारी

यदि तुमने रच जाल नियम के, जग से है मुँह मोड़ा
ज्ञान-दीप लघु दे तम में, बच्चों से नाता तोड़ा

तो मेरे ही रोने से क्यों टूटे नींद तुम्हारी!

तुम भी नर-तन में विभूतियाँ ले जब भू पर आये
अपने कर्मों के फल से क्या मुक्त कभी रह पाये!

कर्म-धुरी पर घूम रही है क्या न सृष्टि यह सारी!

जलता रहे हृदय, तुम अपना न्याय पूर्ण होने दो
मुझे क्षमा की प्रत्याशा में धैर्य न बस खोने दो

दो न दया की भीख, प्रेम का तो हूँ मैं अधिकारी

जीते न्याय, प्रार्थना हारी
विनय यही, प्रभु! झेल सकूँ दुख, जब हो मेरी बारी