usar ka phool

सांध्य तारा

तारा एक दुखों से कातर नभ-सागर में तिरता है
मूर्छित, बाण-विद्ध, संभ्रम-सा
डब-डब नयन, तोड़ता दम-सा
जैसे कोई पंछी आहत होकर भू पर गिरता है
धूसर गोधूली की बेला
दीपक वह जल रहा अकेला
भय लगता, प्रिय! मुझको प्रतिपल अंधकार जो घिरता है
तारा एक दुखों से कातर नभ-सागर में तिरता है

अपनी आँखों के तारे को ऐसे छोड़ गया है कौन?
अल्प वयस्‌ पर दया न आयी
किसने निर्ममतता दिखलायी?
रूठ अकारण इस अबोध शिशु से मुँह मोड़ गया है कौन ?
सूने हैं दिगंत, नभ सूना
देख इसे होता दुख दूना
चिर-महान से चिर-लघु का यह नाता जोड़ गया है कौन?
अपनी आँखों के तारे को ऐसे छोड़ गया है कौन?

देखो, तम की लहरें आतीं बढ़ी लीलने को प्रतिक्षण
इसे न सह्य थपकियाँ हलकी
बहती शीत वायु मरुथल की
अंबर के देवता! तुम्हारा खो न जाय अनमोल रतन
दिग्वधुओ! अंचल फैलाओ
स्नेहदान दो, प्राण बचाओ
दौड़ो, संध्याबाले! सूनापन न इसे कर ले भक्षण
देखो तम की लहरें आतीं बढ़ी लीलने को प्रतिक्षण

चला अभी से, जग में आये कुछ ही पल तो बीते हैं!
एक-एक कर वह छलनामय
माना सब निज में करता लय
अर्द्ध रात्रि में कुछ झड़ जाते, कुछ प्रभात तक जीते हैं
पर उनका क्‍या होता, बोलो,
बिना खिले ही मुरझाते जो!
पीने के पहले ही जिनके पात्र हो चुके रीते हैं!
चला अभी से, जग में आये कुछ ही पल तो बीते हैं!

1941