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नवम सर्ग

धीरे-धीरे दिन ढल गया स्वप्न की चेतना-सा
लौटी संध्या विकल स्मृति-सी प्राण-छाया-वनों में
नीले, पीले नभ-तरु-शिखी नेत्र-से मेघ फूले
आँसू जैसे नखत चमके, नीलिमा मुस्कुरायी
रोया कोई विहग नभ में नीड़ से दूर छूटा
रोयी कोई मधुप-वनिता पंकजावर्तकों में
संज्ञाहीना चक्रउर-वधू एक रोयी नवोढ़ा
जाती देखी किरण ज्यों ही भानु की शेषवाली

गौरी-गुहा-स्मरहर जहाँ दूँढ़ती गेरु-वस्त्रा
आयी गंगा प्रमुदित-मना, भाल-चंद्रावृता-सी
विद्युत-हर्म्या, चिर-तरुण, वाराणसी स्नेहपूर्णा
काँपी चीड़-द्रुम-अवलि-सी चौतिता उर्म्मियों में
आशा-क्षीणा, सजल-नयना, वंदिता, एकवेणी
दीना, हीना, मलिन-वदना, मूर्तिता वेदना-सी
शैया-सेवी प्रतनु सुत को, भानु को देखती थी
गोधूली-सी नत-मुख खड़ी एक वामा विषण्णा

होता जाता तम सघन ज्यों, छा रही थी दुराशा
प्राणों में थी गहन भय की मूर्तियाँ रूप लेतीं
काले भीमाकृति भुजग वायु में तैरते थे
सूनी छाया दिशि-दिशि घनी फैलती थी निशा की
फूटी वाणी विकल सहसा दीप को मंद पाके
‘माता! धातृ, सकल जग की! जाह्नवी पुण्य-तोया !
अंबे! तू ही मुझ पति-हृता, एक-पुत्रा, अभागी
माँ के जी की सुन दुख-कथा, लाज है हाथ तेरे

पीड़ायें दे समुद जननी झेल लूँगी सभी मैं
दे दूँ छिन्ना कर स्वकर से, माँग ग्रीवा अभी तो
मेरे आशा-मुकुल शिशु को यातना से छुड़ा दे
माता! मेरा वचन इतना, देख, जाने न पाये
‘दूँगी मैया नवल तुझको चूनरी सप्त-वर्णा
जीऊँगी मैं जब तक तुझे पूजती ही रहँगी
स्वामी छूटे, सब कुछ गया, एक है वत्स ही तो
मेरे पीड़ा-विकल उर का चेतनाधार, संगी

‘हे संहर्ता निखिल जग के, पार्वतीनाथ! शंभो!
छोड़ो ज्वाला-शर न अपने पुष्प-से शावकों में
क्या होगा जो तुनुक खग एक गाता रहेगा
वासंती में! प्रकृति-शिशिरा-पूर्णता क्षीण होगी!
‘व्यालों में, जो कुटिल कृमि में, पत्र-दूर्वा-दलों में,
दो साँसों का वर अलभ एक मेरे लिये ही!
ऊर्वा गुर्वी कथमपि न जो शैल-संघट्टनों से
प्राणों की ही प्रतनु प्रतिमा क्या उसे भार होगी!

संवेगों-सी निशि बढ़ चली, दीप था क्षीण होता
आँसू जैसे कण-कण चुके, स्नेह का भार ढोते
“माँ! माँ!” बोला सजग सहसा वत्स नेत्रांक फैला
दौड़ी ऊषा, शरवत्‌ गिरी, भूमि पे हाय खाके
‘हा! प्राणों के प्रिय मुकुल! हा जीवनाधार मेरे
कैसे होके विलग तुझसे जी सकूँगी भला मैं
आ जा, मेरे विहग! तुझको अंक में बाँध लूँ मै
मेरे मानी सुत न छिप यों, हाय रे! क्या करूँ मैं

जाऊँ भी तो निकट किसके! कौन मेरी सुनेगा!
कोई लाये उड़कर कहीं से, हाय! संजीवनी ही
हा! हा! रोओ निशिपति! न यों लाल सोया अभी तो
देखो नन्हे अधर हिलते, काँपती कंठ-माला

‘सोओ, मेरे प्रिय सुत! तुम्हें स्वप्न भी छू न पायें
सोओ ऐसे युग-युग न जो नींद टूटे तुम्हारी
भूले से भी अब न तुमको जागने को कहेगी
रोने से भी अब न जननी अंक में ले सकेगी

‘बैठा जाता हृदय हिम-सा, प्राण रोते अभागे
पाषाणों-से निठुर इनको मृत्यु भी क्यों न आती!
ले जाओ, हा पकड़ मुझको कालदूतो कहीं भी
छोड़ो मेरे तुनुक शिशु को, हाथ मैं जोड़ती हूँ
‘जीऊँगी मैं सतत किसकी स्नेह-शब्दावली से!
छाती होगी सजल किसके गात का स्पर्श पाके!
भोला-भाला वदन किसका, हाय! मैं चूम लूँगी!
होगा मेरे विकल मन का कौन संगी निशा में!

‘ “लाऊँगा मैं, जननि! अपने ढूँढ़ मानी पिता को
होने तो दे तनिक मुझको और ऊँचा, बड़ा तू!
बोलेगा, हा! लग हृदय के कौन मेरे भला यों!
प्यारे- प्यारे वचन किसके शोक मेरा हरेंगे?
“बेटा! मुन्ना! अब न तुझको और रोना पड़ेगा
होगी तेरे अब उदर में शूल की-सी न पीड़ा
कष्टों की ही इति बन गयी मृत्यु का आदि तेरा
सो, सो, मेरी नयन-मणि! सो, आज सो सर्वदा को

‘रोकूँगी, हा! प्रतिपल तुझे मैं नहीं और, बेटा!
रोटी को भी अब न तुझको, व्यग्र रोना पड़ेगा
मेरे जैसी निठुर- हृदया माँ कहीं और होंगी!
बेटा मेरे! नित प्रति तुझे दुःख ही दे सकी जो
‘माना मैं थी निठुर फिर भी माँ बड़ी संपदा है
लेती होगी सुधि भला कौन तेरी वहाँ यों
देगी प्रात: उठ त्वरित कौन पक्वान्न, बेटा?
सूखेगा क्या मुख न कलि-सा भूख से साँझ होते?

आती हूँ मैं सँग-सँग लगी, क्लेश न देना जी को
मेरे प्यारे! बिछुड़ तुझसे मैं नहीं जी सकूँगी’
मूर्छा आयी, शिर अवनि को छू गया, रक्त फैला
पीड़ा से थी विकल उर ने दो घड़ी मुक्ति पायी
जाते यों ही कुसुम कुम्हला कुंज की डालियों में
यों ही होती नित नव विभा नष्ट शोभा गँवा के
कोई पाया समझ जग में भाग्य की वक्रता को!
सर्वग्रासी मरण-कर से कौन जो छूट पाया।

फूलों-से भी मृदुल तन, तूलि के-से सँवारे
श्री-धी-सीमा, पृथु-बल, गुणी, बुद्धि-चाणक्य, मानी
साम्राज्यों के अधिपति, महाशक्ति-ऐश्वर्य-शाली
जाते देखे नित-प्रति धरा-गर्भ में धूल होके
तारे होते मलिन क्रमशः, फैलती थी दिवाभा
जातीं पूजा-हित तरुणियाँ सर्प-सी वीथियों से
नीला-पीला सुरधनुष-सा तीर भागीरथी का
ज्योतिर्धागा विशिष शतश: छोड़ता शून्य में था

धो देता जो दुख त्रिविध स्वीय दुग्धोर्मियों से
धो पाता था वह न जलती धूम-छाया-चिता को
प्राणों में जो गहन ममता आज धू-धू जली थी
ठंडी होगी वह न पल को आयु के शेष में भी
X X
दिन गया फिर शेष निशा हुई
निशि गई फिर भी दिन आ गया
चल दिया उस पार अतीत जो
वह न लौट कभी पर आ सका

अवनि थी जिनकी पद-पादुका
गगन ही शिर का मणि-क्षत्र था
टिक सके न भला जब वे यहाँ,
इतर की गति क्याब! फिर बात कया।

दिवस के श्रम से कुचली हुई
कृश-विभा, मलिना, नलिनोपमा
स्थिर खड़ी निज सौध-दुकूल में
निरखती पथ थी श्लथ-सी उषा

दिख पड़ा सहसा विधु-खंड-सा
वह प्रभात वही जिसकी प्रभा
जन-रवों पर गौरव-हास-सी
बिखरती बन नीरव चंद्रिका

वह वही, वह अन्य नहीं कभी
वह कभी उर का स्वर जो रहा
वह दृगों पर ज्योतित कामना
हृदय की छवि थी जिस चित्र में

बन वधू वसुधा ससुधा गयी
जिस छली मुख की मुस्कान से
धँस गयी तल में जिस दृष्टि की
द्रवित कंचन-सी मधु-याचना

वह कभी मिटती शत जन्म में
खिँच गयी मृदु जो उर में कभी
नवल यौवन के प्रथमार्ध में,
प्रणय की छलनामय भंगिमा

मिट गया न मिटा, बनता रहा
बुझ गया न बुझा, जलता रहा
सिसकियाँ भरता हँसता रहा
हृदय! अद्भुत तू इस सृष्टि में

किरण से मिलके अरुणाभ-सा
लहरियाँ हरिताभ बना गयीं
अनल छू भभकी द्रव-चेतना
निमिष तू किसका अपना बना

प्रिय-चिता पर जो हँसती चढ़ी,
ज्वलित तू कर्तव्य-कठोरता
स्वपति का करता सिर छिन्नर जो
प्रणय का पहला उन्माद तू

विहँसता दृग-मध्य समा गया
मधुर शीतल स्नेह-प्रपात-सा
जग उषा अभिनंदन को उठी
गिर पड़ी पर काँप स्वअश्रु-सी

‘निठुरता निज से इतनी उषे,
यह कठोर भयावह वेदना
छिप नहीं सकती मुझ से कभी
सुमुखि! श्रीमुख की ऋजु-वक्रता

बह रहा तप-गौरव-स्वप्न-सा,
सुख नहीं मुझको मिलता कहीं
तुम दिवा-निशि मूर्त विषाद-सी
स्थिर खड़ी दिखती बस सामने

हृदय व्याकुल जो नित पीर से
वह न शांत हुआ जन-नाद में
सकल जीवन रिक्त मरुत्स-सा
विभवता शवता-सम है मुझे

सफलता जग की कहते जिसे
विफलता वह कातर प्राण की
उमड़ते इस लोक-प्रवाह में
द्विगुण हो बहती मन की व्यथा

अनल में निज यौवन झोंकके,
गण प्रधान बना पर क्याक बना!
सिसकियाँ सुनतीं मुझको वहाँ
तुम यहाँ तड़पा करती, उषे!

धधकती इस कोमल प्राण में
सतत जो सुख की, छवि की चिता
प्रलक में प्रतिबिंबित हो वही
अलक में बनती घन-श्यामता

‘अह, उषे। यह कष्ट अपार है
गहन है यह अंतर-वेदना
समिध-सी तुम शुष्क जलो यहाँ
जलद-सा बस मैं घुमड़ा करूँ

‘प्रणय की छवि के मधु-कुंज में
दुखभरी बिजली बन मैं गिरा
झड़ गयी पल में दल-माधुरी,
उड़ गया मृदु हास कपोत-सा

“हृदय में व्रण तीव्र कठोर है
मन अकंटक भी किस भाँति हो!
कर सकूँ किस भाँति सुखी तुम्हें ?
अधर में स्मिति ही किस यत्न से ?

‘सब लुटें धन-गौरव-कीर्तियाँ,
जड़ निजत्व मिले यह धूल में
बन सकूँ वह ओस प्रभात की
तुम जिसे पग से ढुलका चलो’

सकुचती निकली सहसा गिरा
‘तुम नहीं, यह दोष स्वभाग्य का
सुलभ हैं तुमको शत नारियाँ
प्रणय में बलि यौवन हो रहा

‘पर यहाँ शव-सी भर साँस मैं
जग रही जग में दुख-मूल क्यों ?
तनिक अर्थ नहीं जिसका कहीं,
विफल ही उस डाल अपुष्प-सी

तुम इसे समझो दुख-वंचना,
अबलता मन की कह दो इसे
पर नहीं उठती, अब स्वप्न में,
फिर वधू बन लूँ, यह भावना

‘बस यही कहता मन सर्वदा
पति-पदांक निमेष निहार के
फिर वहीं चल दूँ जिस लोक से
मुकुल की सिसकी नित आ रही

‘कुशल ही पति का मिलता कभी
अब बची कुछ और न कामना
कर सको मुझपे इतनी दया
बस दुखी अबला यह माँगती

‘वह कहीं पर हों, सुख से रहें
इस अभागिन की सुधि भूलके
हृदय में उनके न उठे कभी
विरह की मुझ-सी घन वेदना’

नयन से बहती जलधार थी
अधर रुद्ध विरुद्ध उसाँस से
विकल स्तब्ध प्रभात अवाक्‌ था
यह निजत्व-विसर्जन देखके

‘सुन पड़ा, मलयोत्तर द्वीप की
विजय में निज पार्श्व प्रदेश की
जन इसी स्थल का, उस नाम का
निहित था रण-चालक-वेश मे

वह कहीं न वही जिसके लिये
तुम सदैव मिटा निज को रही
पर अभी असमर्थ मिटा सकूँ
कुछ कुतृहल या दुख प्राण का

यह न हो छलना ठहरो, उषे!
हृदय की न प्रतीति असत्य हो
बिखरता उर खंडित काँच-सा
दुख छले सुख का यदि लोभ दे’

तड़ित-सी मन में भभका नयी
डर प्रभात प्रभाहत-सा छिपा
रह गयी चुप सोचभरी उषा
घनतमा तमसा मन की हुई